Archive for October, 2007

अरमानों के गुच्छे

Wednesday, October 31st, 2007

अरमानों के मधुर स्वप्न संजोए नव जीवन में मुस्काने बिखेरते | चहुँ ओर सजते हैं सपनों के फूल कोमल कलियाँ शूलों मे खिलते फूल| हर खूँटी पर टँगे अरमानो के गुच्छे इक-इक कर के खुलते ये मोहक गुच्छे | अरमान हों पूरे हर धड़कन की पुकार कुंडियाँ लग जातीं, मिलते न विचार | खुल भी […]

प्रणय- वेला

Wednesday, October 31st, 2007

आज सन्नाटॉं ने ज़ुबां खोली है तन्हाई भी गुनगुनाने लगी है घबराहट से तरबतर तन देखकर बारिश की बूँदें भी शरमा उठी हैं * आज तो पर्वतों की गोद में बादलों ने अठखेलियाँ करने की ठानी है ढलती साँझ ने तिरछे से मुस्कुराकर अपनी अरुणिम रश्मियाँ बिखेरी हैं * बदरा भी लजाकर ग़हरा चले हैं […]

चुप्पी

Tuesday, October 30th, 2007

चुप्पी, चहुँ ओर चुप्पी कि चुप्पी से घबरा जाती.. सरसराती हवा की साँय-साँय पेड़ों के झुरमुट से झींगुर की धुनें मन में संगीतमय ताल जगातीं पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..! छत खटखटाती बारिश की बूँदें परनाले से बह ठौर ढूँढतीं कहरवा की लय गूँजातीं पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..! कभी-कभार पंछियों का हिंडोला शोर मचाता […]

नूतन स्वरूप

Sunday, October 28th, 2007

ख़्यालों में बसा पराकाष्ठा का स्वरूप वात्सल्य से ओत-प्रोत भ्रूण में नन्हा सा कण ब्रम्हाण्ड के असंख्य रोशनी पुंज से इक किरण प्रस्फुटित हो लेगी जनम घनघोर घटाएं कालिमा छँटेगी बिजली की कौंध नभ में होगी प्रगट क्षितिज में गूंजेगा शंखनाद दैहिक वरण करेगा ऋषि आत्मा का पुनर्जनम मेरी आस्थाएं, मेरी धारणाएं मेरे विचार छू […]

गुनगुनी धूप है

Saturday, October 27th, 2007

तकते रहे आसमाँ धूप के निशाँ पाने को कोहरे गिरे ख़ाक कर डाला दिवाने को शामों को भी सुल्गाया-ग़रमाया हमने धुंध के अँधेरों ने मसला परवाने को सुबह के साए बेख़बर थे अब तक हल्की ज़ुंबिश के बाद सँभल बैठे क़ाफ़िला बादलों का था दमबेदम क़तरा-क़तरा रोशनी को पी बैठे! तपिश पाने को आफ़ताब की […]

साथ तुम्हारा

Thursday, October 25th, 2007

साथ तुम्हारा मेरे मन को भाता है ठंडी हवा के पहले झोंके सा तुम्हारा आना पहली बारिश की बूँदों सा सोंधी खुशबू फैलाना फिर, उमड़ते-घुमड़ते बादलों में पहली बिजली बनकर चमकना मुझ को प्रफुल्लित करता है….! बगिया के पहले पुष्प की महक सा मेरे मन को मोहना साँझ के धुँधलके में पहले स्पर्श सा तन […]

इताबे बेरुख़ी

Thursday, October 25th, 2007

कहने को तो हबीब थे मेरे पासबाँ भी तुम्ही थे सदा संग रूए-सहर देखी फिर भी दरमियां फ़ासले थे वहाँ.. हर लम्हा तन्हा ग़ुज़रा गुफ़्तगू ख़ामोशियों से की आँख भर देखा न कभी ख़लवते आलम था वहाँ.. लाख चाहा ज़हन में हो तुम्ही इक दूरी तुमने बनाई रखी दस्तूरे उल्फ़त निभाए न कभी गुज़ारिश यही […]

इक साया

Wednesday, October 24th, 2007

मेरे आगे-आगे चलता इक साया मेरे छूने की कोशिश में कहीं खो गया वीरानो से टकराती नज़रें फिर उसे ढूंढें दीवार से चिपकी परछाँई में उसे पकड़े दीवार वहीं लेकिन साया ओट में गुम जाता दौड़ के पकड़ पाऊं कि ठोकर खा गिर जाता मन की उड़ान उस साये को ढूंढती फिरती कटे पंख सी […]

स्मृति दंश

Tuesday, October 23rd, 2007

देखते ही देखते जो था, नहीं रहा क्षण-भंगुर! लपटों का अम्बार कालिमा ओढ़े धुँए में गुम बिखरता चला गया जुड़े तिनकों का क़तरा-क़तरा जलने का शोर पार्थिव मिटकर अपार्थिव स्मृति में नवरूप पा गया * ऊपरी मंज़िल टेढ़ा सा जीना ढेरों यादों का बोझा ढोता पल-पल मिटता जाता नवयुगल-रास का दृष्टेता अनकहा यथार्थ लंकादहन दोहराता […]

मुस्काना

Tuesday, October 23rd, 2007

धैर्य के आँचल में करना आराम ओ नीर भरे ऋग के बदरा खोया नींद की आगोश में जब जग करता विश्राम दिल के दर्दों के श्रोत बहाना रिसते छालों को न दिखलाना आंधियारे का लेकर बहाना नीर बहाना, पर मुस्काना  | वीना विज ‘उदित’