Archive for October 14th, 2009

भीतरी बारिश

Wednesday, October 14th, 2009

सूखे तन पे बरसती भीतरी बारिश में भीग-भीग जाती हूँ मैं अन्तर्मन से ! गीली मेरी धोती चिपकी मुझ से क़ोफ़्त है कितनी उघड़ा है बदन ! भीतर चल रहे अंधड़ कँपकँपा जाते हैं दिखती हूँ जीवन जीती भीतर ही भीतर रिसती! चैन ले लूँ मैं भी आँधियाँ तो थमें निचोड़ लूँ गीली धोती ढ़ँक […]