Archive for October, 2007

कैनवस

Monday, October 22nd, 2007

रिक्त कैनवस पर उभरते चेहरे कभी बनते, कभी बिगड़ते ख़्वाबों को ताबीर दे जाते हैं तूलिका से खिंची हर लकीर कह जाती है ढेरों अफ़साने दिल की मर्ज़ी है उसे ही रखे या रुख़ मोड़ दे उसका तलाश है उस रंग की रूह की गहराईयों को रंगकर इक नए रंग की शक्ल इख्तियार करे तूलिका […]

ग़ज़ल……..क्यों हो?

Wednesday, October 17th, 2007

हमदम तुम मेरे फिर भी अधूरे क्यों हो ? मेरे होते हुए तुम तन्हा क्यों हो? हर लम्हा ढूंढती नज़रें चिल्मन के पीछे क्यों हो? रूए-सहर हो मेरे अज़मत पर ख़फ़ा क्यों हो? महताबे हुस्न लिए हुए मुझसे रूठे क्यों हो? आगोशे -करम पाते हुए बेचैने तबियत क्यों हो? क़तरा-क़तरा पिघलते हुए शर्मो-हया से भरे […]

लघु-कथा सुखद अनुभव

Sunday, October 14th, 2007

शाँपिंग करते हुए रेवा के हाथ एक छोटे से कश्मीरी कोट पर जाकर रुक गए |बिना कुछ कहे उसने वो खरीद लिया |उसके सुनहरे ख़्वाबों में एक नन्ही सी तस्वीर उभर आई थी |अपनी सोच पर उसे स्वयं से ही लाज आ रही थी |अभी तो वो रजत के साथ हनीमून पर कश्मीर घूमने आई […]

लघु-कथा सुखद अनुभव

Sunday, October 14th, 2007

शाँपिंग करते हुए रेवा के हाथ एक छोटे से कश्मीरी कोट पर जाकर रुक गए |बिना कुछ कहे उसने वो खरीद लिया |उसके सुनहरे ख़्वाबों में एक नन्ही सी तस्वीर उभर आई थी |अपनी सोच पर उसे स्वयं से ही लाज आ रही थी |अभी तो वो रजत के साथ हनीमून पर कश्मीर घूमने आई […]