मैं और मेरा मौन

मैं और मेरा मौन

मैं और मेरा मौन जब सम्मुख होता
जीवन मेरा इक- इक पन्ना उद्धृत होता
प्रज्ञा चक्षु टोह कर भीतर प्रदीप्त होता
शाश्वत रचना की नींव प्रतिपादित करता

मैं और मेरा मौन—जब सम्मुख होता!!

प्रकाश पुंज नैन द्वार से प्रविष्ट होता
समय के कटिबद्ध आलोकित करता
पिघलते हुए दर्द की परछाईं हटाता
चहुं ओर व्याप्त शोर को मिटाता

मैं और मेरा मौन—जब सम्मुख होता!!

काव्य छलकता शब्दों के मौन से
मौनसिक्त वाणी से अवतरित होती कविता
झरने प्रेम के अविरल बह रहे नैन से
आत्मा के संगीत की धुन रचे कविता

मैं और मेरा मौन—जब सम्मुख होता!!

रिक्त हो गए शब्द जिव्हा तट से अविरल
मौन अभिव्यंजना से होता उद्वेगों का सृजन
भावों का उफ़ान समय के पृष्ठ रंगता
शब्दों का जमघट कविता का रूप धरता

मैं और मेरा मौन जब सम्मुख होता….!!
तभी जीवन में कविता का प्रादुर्माव होता!!

डा. वीणा विज’उदित’

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