अद्वितीय ‘अज’

तुझसे कुछ सवाल हैं ज़िंदगी
माना ये ख़ामोश नाज़ुक अहसास है
ग़म और खुशी पलड़े हैं तेरे दो
ग़म जब भी आया बे रोक-टोक
आते ही त्वरित भरित तरु
गुल्म सा रह जाता उलस-झुलसकर
खुशी का मुखौटा ओढ़ना बेसबब
नम आँखों में हँसी बेवजह है ।
भरे घर में रोने का कोना नहीं पा
आँसुओं का सैलाब भीतर ही रहता
पल-पल में मुखौटे लगाए जाते
जिनकी जातियाँ,उपजातियाँ भी होतीं
खुशी की धूप घर के कोने खंगालती
हँसी की खनक संगीत उचारती
ज्यूं काली घटा बूँदें बरसा बंजर को
हरित, मंजरित,गुंजरित करती है ।
मुखौटों में जब मौन प्रस्फुटित हो
मन का कोलाहल वहां शांत होता है।
अन्तर् की गुफा में अद्वितीय’अज’है
ज़िंदगी, शब्द को रोक ‘अज’मिला दे।।

वीणा विज’उदित’

नोट..जो नित्य है वही ‘अज’है। इसको देखने, महसूसने के लिए मौन आवश्यक है!शब्द से मौन खंडित होता है। प्रकृति की जीवंतता ‘अज’ है।

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