कुछ कहो !
इस ठहरी हुई ख़ामोशी में बेहद शोर है
इन ख़ामोशियों को तोड़ कुछ कहो..
फ़ासले मुँह बाये जो हमारे बीच खड़े हैं
इन्हें नज़दीकियों की ज़ुबां दे कुछ कहो..
इक-दूजे की कशिश नाक़ाम मन्ज़र है
इस बेनाम सफ़र को मुकाम दे कुछ कहो..
सामने देख कर भी अनदेखा किए हम को
रंज़िश ही सही,ज़माने को दिखाने को कुछ कहो..
बेसब्री के आलम में अश्कों को छिपाए रखिए
आँख की कोर में उन्हें ठहरने को कुछ कहो..
बेख़ुदी में तेरा नाम लब पर मचल रहा
लफ़्ज़ों को लबों पर लाने को कुछ कहो..
इल्तज़ा है………
इन ख़ामोशियों को तोड़ कुछ कहो…..!!!
वीणा विज ‘उदित’