आत्मीय
एक भोली भाली
साधारण सी
पर
सबसे उदासीन
इक अजनबी थी वह
प्रथम दृष्टि में..
धीरे-धीरे
निरंतर उसे तकते रहने से
वह नवागुंतक
जिज्ञासा जगाती
लेकिन कटी-कटी रहकर
सबको अपनी ओर
आकृष्ट करती
अंजान सी
सतत आत्मीय लगने लगी थी
और अब,
उसकी उदासीनता
अवगुंठिता सी लगती है….
वह जुड़ी है
किसी और से
जो शायद दूर होकर भी
उसके क़रीब आ जाता है.
उसे सबसे अलग कर जाता है.
उसी में ख़ोयी-ख़ोयी
सबसे अनभिज्ञ
टकटकी लगाए
निरंतर तकती रहती है
शून्य में………………………
वीना विज ‘उदित’
July 10th, 2007 at 5:52 pm
अच्छ कवितायें हैं
July 11th, 2007 at 1:17 am
अच्छी कविता है. 🙂
September 3rd, 2007 at 12:03 pm
रवि,
धन्यवाद !
भविष्य में भी आपसे अपेक्षाएँ हैं |
शुभ्-कामनायें लिये..वीना विज
September 3rd, 2007 at 12:08 pm
उन्मुक्त !
देरी के लिये क्षमा चाहती हुँ|
प्रशन्सा के लिये धन्यवाद, कहानियों के विषय में लिखें|
शुभ – कामनाएँ लिये..वीना विज
August 27th, 2008 at 9:06 pm
it is really good. I am so interested in reading and writing. really its great