Archive for the ‘Hindi Poetry’ Category
Tuesday, October 30th, 2007
चुप्पी, चहुँ ओर चुप्पी कि चुप्पी से घबरा जाती.. सरसराती हवा की साँय-साँय पेड़ों के झुरमुट से झींगुर की धुनें मन में संगीतमय ताल जगातीं पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..! छत खटखटाती बारिश की बूँदें परनाले से बह ठौर ढूँढतीं कहरवा की लय गूँजातीं पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..! कभी-कभार पंछियों का हिंडोला शोर मचाता […]
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Sunday, October 28th, 2007
ख़्यालों में बसा पराकाष्ठा का स्वरूप वात्सल्य से ओत-प्रोत भ्रूण में नन्हा सा कण ब्रम्हाण्ड के असंख्य रोशनी पुंज से इक किरण प्रस्फुटित हो लेगी जनम घनघोर घटाएं कालिमा छँटेगी बिजली की कौंध नभ में होगी प्रगट क्षितिज में गूंजेगा शंखनाद दैहिक वरण करेगा ऋषि आत्मा का पुनर्जनम मेरी आस्थाएं, मेरी धारणाएं मेरे विचार छू […]
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Saturday, October 27th, 2007
तकते रहे आसमाँ धूप के निशाँ पाने को कोहरे गिरे ख़ाक कर डाला दिवाने को शामों को भी सुल्गाया-ग़रमाया हमने धुंध के अँधेरों ने मसला परवाने को सुबह के साए बेख़बर थे अब तक हल्की ज़ुंबिश के बाद सँभल बैठे क़ाफ़िला बादलों का था दमबेदम क़तरा-क़तरा रोशनी को पी बैठे! तपिश पाने को आफ़ताब की […]
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Thursday, October 25th, 2007
साथ तुम्हारा मेरे मन को भाता है ठंडी हवा के पहले झोंके सा तुम्हारा आना पहली बारिश की बूँदों सा सोंधी खुशबू फैलाना फिर, उमड़ते-घुमड़ते बादलों में पहली बिजली बनकर चमकना मुझ को प्रफुल्लित करता है….! बगिया के पहले पुष्प की महक सा मेरे मन को मोहना साँझ के धुँधलके में पहले स्पर्श सा तन […]
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Thursday, October 25th, 2007
कहने को तो हबीब थे मेरे पासबाँ भी तुम्ही थे सदा संग रूए-सहर देखी फिर भी दरमियां फ़ासले थे वहाँ.. हर लम्हा तन्हा ग़ुज़रा गुफ़्तगू ख़ामोशियों से की आँख भर देखा न कभी ख़लवते आलम था वहाँ.. लाख चाहा ज़हन में हो तुम्ही इक दूरी तुमने बनाई रखी दस्तूरे उल्फ़त निभाए न कभी गुज़ारिश यही […]
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Wednesday, October 24th, 2007
मेरे आगे-आगे चलता इक साया मेरे छूने की कोशिश में कहीं खो गया वीरानो से टकराती नज़रें फिर उसे ढूंढें दीवार से चिपकी परछाँई में उसे पकड़े दीवार वहीं लेकिन साया ओट में गुम जाता दौड़ के पकड़ पाऊं कि ठोकर खा गिर जाता मन की उड़ान उस साये को ढूंढती फिरती कटे पंख सी […]
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Tuesday, October 23rd, 2007
देखते ही देखते जो था, नहीं रहा क्षण-भंगुर! लपटों का अम्बार कालिमा ओढ़े धुँए में गुम बिखरता चला गया जुड़े तिनकों का क़तरा-क़तरा जलने का शोर पार्थिव मिटकर अपार्थिव स्मृति में नवरूप पा गया * ऊपरी मंज़िल टेढ़ा सा जीना ढेरों यादों का बोझा ढोता पल-पल मिटता जाता नवयुगल-रास का दृष्टेता अनकहा यथार्थ लंकादहन दोहराता […]
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Tuesday, October 23rd, 2007
धैर्य के आँचल में करना आराम ओ नीर भरे ऋग के बदरा खोया नींद की आगोश में जब जग करता विश्राम दिल के दर्दों के श्रोत बहाना रिसते छालों को न दिखलाना आंधियारे का लेकर बहाना नीर बहाना, पर मुस्काना | वीना विज ‘उदित’
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Monday, October 22nd, 2007
रिक्त कैनवस पर उभरते चेहरे कभी बनते, कभी बिगड़ते ख़्वाबों को ताबीर दे जाते हैं तूलिका से खिंची हर लकीर कह जाती है ढेरों अफ़साने दिल की मर्ज़ी है उसे ही रखे या रुख़ मोड़ दे उसका तलाश है उस रंग की रूह की गहराईयों को रंगकर इक नए रंग की शक्ल इख्तियार करे तूलिका […]
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Wednesday, October 17th, 2007
हमदम तुम मेरे फिर भी अधूरे क्यों हो ? मेरे होते हुए तुम तन्हा क्यों हो? हर लम्हा ढूंढती नज़रें चिल्मन के पीछे क्यों हो? रूए-सहर हो मेरे अज़मत पर ख़फ़ा क्यों हो? महताबे हुस्न लिए हुए मुझसे रूठे क्यों हो? आगोशे -करम पाते हुए बेचैने तबियत क्यों हो? क़तरा-क़तरा पिघलते हुए शर्मो-हया से भरे […]
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