Archive for September 24th, 2014

अन्ततः

Wednesday, September 24th, 2014

हे प्रिये! पीड़ाओं से व्यथित दुधिया चाँदनी मटमैली हो रही है- पिघलती हुई साँझ,रात की स्याही में गुम हो रही है- बाधाओं से घिरी बदरी की टुकड़ी काली हो रही है- आकाश-गंगा में नहाए ,तारों के झुरमुट अभी भी सूखे हैं- अपने ग्रहों की परिक्रमा करते चन्द्र थक सोने चले हैं- साँझ के झुटपुटे में […]

प्रकृति की कोख का बलात्कार

Wednesday, September 24th, 2014

चीत्कारों की गूँज से दिशाएँ गूँज रही हैं, लू लगती गरम हवाएँ शूल सी चुभ रही हैं| दूजे के घर की आग का सेंक तो था,मन जलता न था, अब अपनी कोख़ जली तो जलन का अंदाज़ा हुआ| धरोहर कोख़ की ले स्वयं पर गर्वित हो इतराती, बलात्कार उसी कोख़ का होने पर बेबस हो […]