Archive for December, 2008

शेर

Thursday, December 18th, 2008

इन्तहाई परेशां हूँ ज़िस्म का दामन बचाऊँ कैसे बढ़ता चला आ रहा है नंगी परछाईयों का कारवाँ || वीणा विज ‘उदित’

बैसाखियाँ

Sunday, December 14th, 2008

आधी रात को डैडी जी को जो खाँसी लगी, तो बंद होने का नाम ही न ले| ममी जी घुटनों के दर्द से पीडित पास ही लेटी ,बस शोर ही मचाए जा रहीं थीं कि वे उठकर कफ़ सिरप ले लें या फिर मुलट्ठी-मिसरी ही मुँह में डाल लें |लेकिन खाँसी जो एक बार छिडी […]