सवालों से भरी कोंपलें
चाँद क़तरा-क़तरा पिघल
कर रहा शरारतें
मेरे जिग़र की ओट से
मचलीं कुछ हसरतें
फ़लक के पार चलीं
अपने लिए तलाशने
इक नया पारावार…
मेरे भीतर की इक धरा
गहरे में पैठ
ज़ख़्मों का कारवाँ सहेजती
मरहम लगा दुलारती
जीने का भ्रम देती
आँखों की पोरों में रेशे भर
देती भावों को विस्तार…
वीरान वृक्ष का दामन
ज़र्द पत्तों की बेशुमार भीड़
बेबस सूखी टहनियाँ
झरे पत्ते जीर्ण-क्षीर्ण
पवन झोंके उड़ा ले चले
धूल-रंजित कर जिन्हें
देखी है ऐसी जाती बहार…
ठुके हैं तृषित सुलभ उर में
कुछ नए प्रश्न
सवालों से भरी कोंपलें
रिसता है जिनसे
असहिष्णु, संवेदनहीन अनल
बिखरेगा कण-कण में
एकाकार होगा
प्रणव-ध्वनि में समाकर…!
वीणा विज’उदित’