मुकम्मल रिश्ते
दम तोड़ते रिश्ते
बड़े बेमानी से होते हैं
सिर्फ बातें ही बातें होती हैं
बातों में थाह नहीं होती
निगाहें टिकी तो होती हैं
नज़रें भटक रही होती हैं
कुछ कहने को खुलती है ज़ुबां
शब्द-कोष ही रीत जाते हैं
..निर्विकार चेहरों के भाव
मंजे हुए बनावटी मुखौटे
इक-दूजे से कतराते हैं
चाहते हैं रिश्तों से किनारा
टूटने की चरमराहट का ग़म
कहाँ छूटने देता है दम्भ
संबंध बिखर रहा होता है
सही लम्हा तलाश रहा होता है
नज़रें चुराना,कन्नी काटना
जमाने की नज़रों से छिपाकर
उघड़ न जाए इस ख़्याल से
नाम रख मुकम्मल बनाया जाता है।।
वीणा विज’उदित’