बरखा झड़ी

उमड़-घुमड़ आई सावनी शतधार
दर्दो-ग़म से मुतासिर मैं रो पड़ी।
तस्सुवर में आएं जुदाई के पल
ऐसे ही मौसम की है वो कड़ी ।
भीगी लटों से टपकते थे मोती
लबों पर थी अफसानों की लड़ी।
अनकहे ख़्वाब थे आँखों में तैरते
पलकें यूं झुकी कि नदी बह पड़ी।
फिसले लम्हे वक्त ने चाल ये चली
दिलों को करीब लाई बरखा झड़ी।
आज सांझी करी बादलों ने खुशी
बरसी जो बूँदें ज़िदंगी हँस पड़ी ।
झंकार’वीणा’जब तक वहाँ पहुंची
ठिठकी विरहन बेल परवान चढ़ी ।।

वीणा विज’उदित’

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