उजड़ी बस्ती

इस उजड़ी बस्ती का कराहना
भेदता है मेरी नसें आत्मा मेरी जाँ
पत्थरों का रुदन है चारों तरफ
किलकारियां गूँजती थीं कल जहाँ
तिनका-तिनका बिखर गया
ज़िंदगी का बचा न कोई निशां
लाशों की गंध ढोती बोझिल हवा
खूनी खेलों से मौत के साये पशेमा
इधर-उधर, यहाँ-वहाँ बिखरा धुंआ
दुर्गन्ध, सड़ांध ने किया परेशां
सन्नाटे की दरारों को बेधता रुदन
चमगादड़ों का बन गया था रिहाइशां
व्यतीत का सब मिथ्या बन गया
आगत सत्य कि न रहा कोई आशियां
घर-बार,माणिक,मणियां मुक गए
उजड़े घरोंदों से विलग कहाँ लेंगे पनाह
निसर्ग की शक्तियों के वश मानव
पूर्णत्व आन्तरिक भाव से पूजेगा खुदा।

वीणा विज ‘उदित’

Leave a Reply