अब कोई यदि मेरे पथ पर

अब कोई यदि मेरे पथ पर
मेरी परछाई में समा कर
अन्जाना हमसफ़र बन साथ रहे
मेरे गिरते ही मुझमें समा जाए
तो कहाँ ढूँढ पाऊँगा उसे…?
मेरी अंत:सलिला के संग बहे
जिस्म के हर छिद्र से झाँके
धड़कन की कदमताल समझे
साँसों की रवानी से आए-जाए
तो कैसे पकड़ पाऊँगा उसे…?
मेरी वाणी में अहम् के स्वर
शब्दसलिला के प्रवाह में बहें
जिनकी अवमानना न हो सके
जो नि:शब्द ख़ामोशियाँ कहें
तो कैसे समझा पाऊँगा उसे…?
पथ के कंकर-पत्थर बीनता रहे
तप्त धरा पे नंगे पाँव जलता रहे
जलन से तमिस्त्रा चूर हो जाए
जो श्रापित स्वयं भुक्तभोगी बने
तो कैसे रोक लूँगा उसे…?
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वीणा विज उदित

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