रात भर (ग़ज़ल)

ग़ज़ल

“रात भर”

 

राख में दबी चिंगारी सुलगती रही

इंतजार तिरा करती रही रात भर।

तेरी नज़र ने सितम इतने कर डाले

सितम की गर्माहट, सहती रही रात भर।

कहूं  राज़-ए-दिल तो कहूं किस से

इसी उल्झन में तड़पती रही रात भर।

हर रात,  बस, बेबसी में ही गुजरी

कौल-ओ-करार याद करती रही रात भर।

सुबह की आमद में तमाम रात मैं जागी

चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर।

मिट गई ‘वीणा’ इश्क की आग में

तड़पती, करवटें बदलती रही रात भर।।

 

वीणा विज’उदित’

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