यह चाह,यह प्रत्याशा

स्वप्नों से
बोझिल आँखें
मुंदी जा रही हैं
प्रिय का सामीप्य पाने को-
ज्यूँ नदी की पारदर्शी
आँखों में झाँकते
पर्वत स्थित वृक्ष तरसते
तरल धार में मिल जाने को-
उफनाती लहरों की लोच
उल्लास का लहरिल
प्रवाह ज्यूँ उमड़ता
सागर में मिल जाने को-
दल बल लिए बढ़ते मेघ
तरल वाष्प से लदे
झर कर तृषित
की क्षुधा बुझाने को –
सुरमई साँझ ज्यूँ
गहन अँधकार में समा
देती आवाहन ऊषा के
केसरी विहान को-
शंखपुष्पी का उजास
ज्यूँ खिलकर बिखरता
एक किरण की
ओक भर पाने को-
यह चाह, यह प्रत्याशा
यह अद्वैत-क्षिती-रेखा
प्यासी एक रोम की
सिहरन भर उल्लास पाने को-
वीणा विज ‘उदित’
12th July’2018

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