क़तरा-क़तरा चाँदनी

रूए सहर का गुमा हो जाता है
जब चिल्मन से झाँकते नूर पर
बिखरी हो क़तरा-क़तरा चाँदनी ।
रुख़ से हिजाब जो हटाओगी
ऐ महजबीं! महताब के सदके
तुम पर क़तरे बिखेर भरमाएगा ।
होशो-हवास में हूँ, नहीं मैनोश
गुलचीं भी नहीं,मुतवज्जेह हूँ तिरा
भीगी रात की मस्त फिज़ाओं में
मिलन की बेताबी में देता हूं सदा
हुस्नो-जमाल का है खै़र-मकदम
ता-उम्र तिरे तसुव्वर में डूबने को
उतर आ मिरी आँखों के शीशों में
इक बार आजमा के तो देख ले ।।
अर्थ:-
रूए सहर-सुबह, गुमा-धोखा, चिल्मन-परदा, क़तरा-टुकड़ा,
महजबीं- खूबसूरत, महताब-चांद, मैनोश-शराब पिये हुए,
गुलचीं- फूल मसलने वाला, मुतवज्जेह-आकृष्ट,हुस्नो-जमाल-
बेहद संदर, ख़ैर-मकदम- स्वागत ।

वीणा विज’उदित’

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