इंतहा-ए-दीवानगी (नज़्म )

रब मान दिन रात की तेरी इबादत
कलमा दिल का पढ़ जुबां होई बंद
इश्क कब मोहताज रहा लफ्जों का
चारों सू दिखे बयानगी यारब ।
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जुल्फ-ए-जंजीर से लिपट खुश है दिल
बहते आंसू मेरी खुराक बन चुके अब
बंध जंजीर से इंतहा-ए-दिवानगी हुई
तिश्नगी दीदार-ए-यार की बनी क़यामत।
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मृगशावक तरसे अविरल जल बावत
दरिया उफना करे, सागर की चाहत
तरसे स्वाति-बूंद को ज्यूँ प्यासा पपीहा
कफ़स की क़ैद से रूह करे बगावत।
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जिंदगी रख दी है गिरवी, तेरी अमानत
की है खामोशियों से याराने की हिमाकत
हुए आशिक रोग लगाया इश्क-मिज़ाजी
वस्ले-यार नूर बिन,बेजान मेरी हक़ीकत।।

वीणा विज ‘उदित’

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