टूटे लम्हे
वक्त की शाख से
टूट कर लम्हे गुम जाते हैं !
रिश्ते बेनाम होते हैं तो
मर जाते हैं !
ठहरे हुए रिश्ते
सड़कर बदबूदार हो जाते हैं !
दामन झटकाने से
सड़ांध तो जाती नहीं,
जिस्म के हर क़तरे के
टपकते लहू से बू आती है !
अच्छा हो कि काटकर
फेंक दो -उन शाखों को
लम्हों को लिपटाए
ख़ामोशी से जीती हैं जो !
टूटता है जब इक-इक लम्हा
चरमराती हैं टहनियाँ
लम्हे ग़ुम जाते हैं
सूख कर
मुरझा जाती हैं टहनियाँ !!!
नज़्म by वीना विज ‘उदित’
November 7th, 2007 at 1:11 am
शानदार् कविता
बस लिखते रहिये
November 7th, 2007 at 3:23 am
अच्छा है वीना जी. सोचने पर, या शायद महसूसने पर मजबूर किया आपकी नज्म ने.
अच्छा हो कि काटकर
फेंक दो -उन शाखों को
लम्हों को लिपटाए
ख़ामोशी से जीती हैं जो !
सोच रहा हूँ – क्या ये मुमकिन है ?? कुछ लम्हे हमारा पीछा (शायद) उम्र भर नहीं छोड़ते.
बहरहाल, इस नज्म के लिए शुक्रिया.
November 7th, 2007 at 3:55 am
bahut baDhiyaa rcanaa hai..
अच्छा हो कि काटकर
फेंक दो -उन शाखों को
लम्हों को लिपटाए
ख़ामोशी से जीती हैं जो !
November 7th, 2007 at 6:48 am
वक्त की शाख से
टूट कर लम्हे गुम जाते हैं !
रिश्ते बेनाम होते हैं तो
मर जाते हैं !
अच्छी रचना है. पसंद आई, बधाई.