थ्रोड रोल्स (रोटी फेंकने) का एकमात्र कैफे
बेहद अटपटा सा लगता है सुनकर कि चलो वहाँ चलकर खाना खाया जाए जहाँ रोटी फेंककर दी जाती है |क्या तमीज़ है? लोग तो जानवर को भी प्रेम भाव से रोटी खिलाते हैं,और यहाँ फेंकी हुई रोटी खाने का शौक चर्रा रहा है |अमेरिका के मध्य में दक्षिणी तटवर्तीय प्रदेश अलेबामा गल्फ कोस्ट कहलाता है |हम बच्चों के साथ वहाँ एक सप्ताह की छुट्टियाँ मनाने पहुँचे हुए थे |शांत, एकांत, जहाँ हर तनाव से मुक्ति मिल सके और तन-मन दोनों ही कुंठा-मुक्त हो सकें—-ऍसी जगह है वो |आँखों को अविराम विशाल महासागर के दर्शन हर घड़ी होते हैं |सर पर नीले अम्बर की छतरी–मानो नील सागर नीले अम्बर में समा एकाकार हो रहा हो |पैरों तले शूगर-सैडं अर्थात सफेद रेत साफ-सुथरी बिछी हुई है |सागर के भीतर व किनारों पर ढेरों लोग जल से अठखेलियाँ कर रहे हैं |नैनाभिराम दृश्यों से मन ओतप्रोत हो उठा |मन है कि सागर की उमड़ती आती लहरों के संग उछालें मारता है |लहरें गिनने का अथक प्रयास निष्फल हो जाता है |वे एक-दूसरे में इस कदर जल्दी से घुल-मिल जाती हैं कि किसी एक लहर का रूप, आकार, ऊँचाई आदि जानी ही नहीं जा सकती |वाह! कैसे पीछे से बड़ी लहर आकर छोटी लहर को आगे बढ़ने से रोक लेती है कि कहीं उसका कुछ अनिष्ट न हो जाए |अपने आँचल में समेटकर उसे वापिस गन्तव्य की ओर चल पड़ती है |इस समेटन में छोटी का अस्तित्व बड़ी में ही समा जाता है |एकाकार हो जाती हैं वे |सदियों से वे किनारों को यूं ही झूठ-मूठ लुभा रही हैं |नीला अम्बर भी मूक-दृष्टेता बना सदियों से उनकी आख-मिचौली देख मुस्कुराता रहता है |हाँ, यदा कदा बदरा आ कर कुछ धूम मचा जाते होंगे |जबसे सृष्टि बनी है ,यह खेल चल रहा है |मन है कि इस सोच से परे नहीं हटता और आखें इस दृश्य से परे नहीं हटतीं |कि तभी बच्चे तन्द्रा भंग करते हैं |खाने का समय हो गया है, चलो ‘थ्रोड रोल्स’ खाकर आते हैं |
होटल फीनिक्स, जहाँ हम आकर ठहरे थे–वहाँ केवल स्यूईट्स ही हैं |जिनमें हर प्रकार की सुविधा होती है |खाना आराम से बनाया जा सकता है, लेकिन बाहर छुट्टियाँ मनाने आने पर कौन यह झंझट करे ? सो लैम्बर्ट कैफे…जहाँ थ्रोड रोल्स मिलते हैं,( कहते हैं, उससे बेहतर जगह अलेबामा गल्फ कोस्ट में खाने के लिए कोई और है ही नहीं )में हम कोई १५-२० मिनिट में पहुँच गए |सामने देखने पर लगा जैसे हम पुरानी सदी के किसी घर पर आ पहुँचे हैं, जिसके सामने एक पुरानी बैलगाड़ी खड़ी है |करीब सौ साल पुरानी साईकिलों के , पुरानी कारों के ढाँचे रखे हैं |उस घर से लेकर बाहर सड़क तक लोग लम्बी कतार में खड़े, भीतर जाने के लिए अपनी पारी का इंतज़ार कर रहे हैं |हम भी उसी में जाकर जुड़ गए |तकरीबन आधे-पौने घंटे में हमने भी ज्यूँ ही भीतर कदम रखा, लगा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यहाँ चरितार्थ हो गया है |वहाँ तमाम दुनिया जैसे..अरब, अफ्रीका, योरप, एशिया , आरमीनिया और न जाने कहाँ-कहाँ से टूरिस्ट आए हुए थे |वे सब शान्त व स्थिर भाव से खड़े दीवारों पर सजी पुरातन काल की वस्तुओं व पुरानी तस्वीरों को देख रहे थे |लगता था वे उनमें डूबे, उसी काल में पहुँचकर मानो उनके साथ ही विचर रहे हों |१९४२ में मि. लैम्बर्ट ने कई मुश्किलों का सामना करके इस सुनसान जगह पर दक्षिणी अमेरिका में रची- बसी संस्कृति को सैनानियों के मन लुभाने के लिए उसी शैली में वहाँ का भोजन परोसने व खिलाने के लिए “लैम्बर्ट कैफे” खोला |इसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई, और लोग इसका आनन्द उठाने वहाँ आने लगे |आज मि.लैम्बर्ट तो काल कलवित हो चुके थे लेकिन कैफे की दीवारों पर टँगी तस्वीरें उनके व उनके परिवार के संघर्ष की दास्तां बयां कर रहीं थीं | वह जगह एक म्यूज़ियम लग रही थी |
बाहर की दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखा था..LAMBERT’S CAFE Established 1942 By Earl De ..LAMBERT
फोटो-फ्रेमों से भरी दीवारों के आहाते से भीतर अपनी पारी आने पर हम जैसे ही प्रविष्ट हुए, एक अंग्रेज़ महिला -जो पुरातन ग्रामीण ड्रैस यानि कि सफ़ेद चुन्नटॉं से गुब्बारे बनी बाहों के ब्लाऊज़ के ऊपर कशीदाकारी की हुई जैकेट व काली स्कर्ट के ऊपर रंग-बिरंगा कशीदा किया हुआ एपरन बाँधे,पैरों में ग़म-बूट व सिर पर बड़ी सी टोकरीनुमा हैट लगाए -ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए झुककर अदब से हमें ‘वैल्कम’ कहा, साथ ही पीछे आने का इशारा किया| भीतर बेहद शोर था | वहाँ दो बड़ॅ हाँल कमरे थे |उनकी दीवारें भी अपना अस्तित्व छिपाए फोटो-फ्रेमों से भरी पड़ी थीं |पुरानी सदी के बर्तनों के नमूने,वैसे ही खिलौने व छोटी कारों ,साईकिलों के नमूने भी ऊपरी हिस्सों में सजे रखे थे |नेपथ्य में कंट्री-म्यूज़िक बज रहा था | लोगों की भीड़ थी ,वे जोर-जोर से बातें कर रहे थे | एक-दूसरे से बेपरवाह, बहुत ही बेतकल्लुफ माहौल था |सामने तीन कतारों में १०-१० टेबल व उनके दोनों ओर मोटी-मोटी पुराने ज़माने की लकड़ी के बैंच बिछे थे | हमें भी दो बैंच मिल गए थे बैठने को | जब हाँल खचा- खच भर गए तो अचानक म्यूज़िक बंद हो गया |देखते हैं कि सामने पाँच युवतियाँ उसी पुरातन पोशाकों में एक-दूसरी की कमर में हाथ डाले हुए गुँथी हुई एक जैसे कदम उठातीं, नृत्य करती हुईं, मधुर गीत गाती हुईं एक ओर से आईं और सारे माहौल को प्रसन्न व चकित करती हुईं दूसरी ओर निकल गईं | बहुत ही मनुहारी दृश्य था | लोगों ने जोर-जोर से तालियाँ व सीटियाँ बजाकर उनका शुक्रिया किया | सबके चेहरे ऍसे खिल गए थे ,मानो मस्ती की पाठशाला में बैठे हुए हों |
उनके बाद ही तीन युवक आए, जिनके हाथों में सफेद दस्ताने पहने हुए थे | उनके गले में बड़ी-बड़ी टोकरियाँ लटक रही थीं,व उनके पीछे एक छुनछुना लगा बजे जा रहा था | वे काओ ब्वायज़ लग रहे थे | आते ही उन्होंने वहाँ गाहकों के सामने रखीं मोटी-मोटी थालियों में आलू के चिप्स जो आपस में चिपके थे–कुछ अजीब से आकार की कड़छुली से परोसने शुरू कर दिये | भूख तो करारी लग रही थी, सो आलू जैसे ही मुँह में डाले -लगा मुँह में घुलते ही जा रहे हैं |बेहद स्वादिष्ट!! उसीके पीछे गुड़ का शहद, मधुमक्खी का प्राकृतिक शहद व मीठा सीरा लिए दूसरा लड़का आ गया | वह भी परोस गया | इनके साथ आलू के चिप्स खाए जा रहे थे | (हमारे देश में तो ट्माटर की चटनी के साथ खाते हैं)खैर..तभी शोर मचा’आ गए-आ गए’ देखते हैं कि सामने बेकर की पोशाक पहने एक भीमकाय व्यक्ति पेट पर बड़ी सी टोकरी लटकाए, दस्ताने पहने हाथों से उसमें से डोनट जैसी गोल-गोल रोटियाँ निकाल- निकाल कर ऊपर की ओर उछाल -उछाल कर सामने फेंक रहा है | प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह बूढा, जवान, बच्चा या औरतें वहाँ जो भी बैठा था, सभी हाथ ऊपर उठा- उठा कर उन रोल्स को कैच कर रहे थे| हम सब ने भी अपने- अपने लिए २-२, ३-३ ले लिए| भट्टी से आए गरमा-गरम बन्स आलू व शहद के साथ खाने में बेहद लज़ीज़ लगे | बन्स को झेलना उठ-उठकर, एक खेल लग रहा था | दो व्यक्ति और आ गए | फिर तो पूरब, पश्चिम और उत्तर तीनों ओर से रोल्स की बौछार हो रही थी | आश्चर्य हो रहा था देख कर कि एक भी रोल नीचे नहीं गिरा | इस दृश्य को सभी पर्यटक अपने- अपने कैमरों में कैद कर रहे थे | हमने भी कभी फुर्सत में बैठकर इन लम्हों को यादकर मन प्रफुल्लित करने के लिए इन्हें अपने वीडियो कैमरे में कैद कर लिया | मज़े की बात है कि यहाँ कोई अनुशासन व ऑपचारिकता नहीं थी | हाँ, हर एक को एक डिश का आँर्डर देना नियम है | नहीं तो मुफ्त में मिली चीजें खाकर ही पेट भरकर लोग घर चले जाएं | फिर कैफे का खर्च कैसे चल सकेगा? खैर , ढेर सारी खुशी व खिलखिलाती हँसी पाने के लिए यह कोई मँहगा सौदा नहीं है |
अभी खाना चल ही रहा था कि वैसा ही सजा- धजा एक शरारती लड़का काँच के एक बड़े जग में लाल रंग का शर्बत लेकर आया और आते ही उसने कुछ ऐसा किया कि हम देख तो नहीं सके पर वहाँ ज़ोरदार हँसी के ठहाके छूट रहे थे | पलक झपकते ही वह हमारी टेबल पर था | आते ही उसने वह शर्बत का जग हमारी टेबल पर उड़ेल दिया | हम सब घबराकर उठ खड़े हुए, कि लो हो गए गीले |लेकिन , यह क्या?वह दोनो ओर से बंद था | हम भी ठहाके लगा उठे | अच्छा बुद्धू बना रहा था वो सब को बारी-बारी |
इतना अनन्द ! इतनी हँसी !!भोजन को परोसते हुए इतनी खुशियाँ साथ में परोसना, क्या कला है!!तमाम उम्र देश- विदेश में हमने ढेरों जगह खाना खाया, लेकिन खुशियों के आटे में लिपटी , प्रसन्नता भरे अचम्भे देती, शोर-गुल से लिप्त वो फेंकी हुई ब्रैड रोल्स या गोल रोटी का जो ज़ायका मुँह के साथ-साथ दिल में समा गया है, उसके सामने सब स्वाद फीके हैं |
वीणा विज ‘उदित’
January 12th, 2008 at 6:17 am
lot of thanks for this story. I enjoy it very much.
vikram