अहम् को तिलांजली
हर बात पर बहस -हर चर्चा पर लडाई बस यही होता था , जब भी होता था देव और वन्या छोटी से छोटी बात पर भी बहसने के मुद्दे पर पहुंच ही जाते थे दोनो चाहते थे कि आपस में कोई टोपिक ना ही शुरू हो लेकिन पति-पत्नी ने आखिरकार रहना तो साथ ही था न ! सारी उम्र इकट्ठी काटी थी, वो बात और है -समझौतों के दामन में तो फिर अब ——–?एक ही घर में रहते हुए , एक कमरे में रहने पर भी कोफ़्त होती थी बच्चे तो दोनो चले गये थे बेटा नौकरी पर तो बेटी अपने ससुराल रह गए थे बस –मियाँ और बीवी।
एक ही बेडरूम में आखीर क्यों एक दूसरे के खर्राटों को सुनकर नींद खराब की जाये ,इसलिए अलग -अलग बेडरूम में सोने का चलन हो गया था अब वैसे भी ढलती उम्र में किसी एक के करवट लेने से यदि दूसरे की नींद भी उखड़ जाती थी , तो फिर उसकी रात आंखों में कटती थी व अगली सुबह एक -दूसरे का मुँह भी ना देखनेवाला हाल होता थासुबह का आगाज मनहूसियत से हो तो दिन कैसा होता होगा , यह तो वही समझ सकता है जो कभी ऐसे हालात से दो – चार हुआ हो ..
वे दोनो स्वयं हैरान थे कि कभी वे भी एक दूसरे के दीवाने व प्रेमी थे उम्र ढलने के साथ – साथ आखीर इतना बदलाव व बेरुखी कैसे? वन्या स्वयं को दोषी मानती थी उसने सारी उम्र सम्पूर्ण समर्पण की राह अपनाई रही तभी तो उनका प्रेम रहा कहीं भी अवरोध आड़े आता , तो तभी वही दीवानगी -बेरुखी बन जाती थी पुरुष का अहम् सदा कायम रहाऔर उसकी छत्र छाया में सहमा हुआ प्रेम पनपता रहा देव आज दावा करता है कि वह इन परिस्थितियों से जूझ कर थक चुका है उसकी सहन -शक्ति की सीमा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी है और साथ – साथ नहीं जीया जा सकता है यह सुनते ही वन्या टूटकर बिखर जाती । वन्या जितनी भावुक व संवेदनशील थी , देव उतना ही व्यवहारिक अपितु धैर्यवान था।हर पल , हर घड़ी वन्या की कोशिश रहती कि वह देव की इच्छानुरूप ही हर कार्य को अंजाम दे ।फिर भी न जाने कब कहाँ चूक हो जाती और देव का मुँह बन जाता ।
वन्या इस अधूरेपन में पूर्णता खोजती रहती । उसे लगता यदि वह अपूर्ण है , उसमें कमियां हैं तो देव में भी कम खामियां नहीं हैं। अंतत: हम सब अधूरे हैं। पूर्णता मात्र हमारी कल्पना है। जिन रिश्तों की दुहाई देते हम थकते नहीं , वही जब टूटते हैं ;और उनसे उलझे भावात्मक तन्तु सुलझ नहीं पाते तो वे त्रासदायी बन जाते हैं। सम्भावनाएं जन्म लेने लगती हैं। ‘प्रेम जब अधिक बढ जाता है तो उसमें क्रोध रूपी घाव सरलता से पनपने लगता है’। (पति- पत्नी के बीच ) यह कहीं पढा था। कारण ——-क्योंकि वे दोनो एक- दूसरे को फ़ॉर-graanted ले लेते हैं। कहीं कोई लिहाज या आदर नहीं रह जाता है । तभी वह घट जाता है , जो एक- दूसरे से आपेक्षित नहीं होता। वही पति – पत्नी चेतनाशून्य से , मशीन के पुर्जे की तरह जीने लग जाते हैं। इसी कारण वन्या के मस्तिष्क में भाँति- भाँति की शंकाएँ मंडराने लगतीं। ये सब बातें – उसे किसी भावी अनिष्ट की पूर्व – संकेत सी प्रतीत होतीं। हर दिन , हर पल की कसक को ही इस उम्र में उसने अपने जीवन की नियति स्वीकार कर लिया था। बेनाम सा दर्द उसके सीने में चुभन लिए जीं रहा था।
शादी के समय माँ का कहा वाक्य ” अग्नि के चारों ओर फेरे लेते हुए , उस अग्नि में अपने अहम् की आहुति दे दोगी , तो जीवन की राह फूलों भरी हो जायेगी। पति व ससुराल को पूर्णतया पा लोगी। “—-वन्या ने सदा उसी के अनुरूप जीवन जीया। सारी उम्र वह सबकी चहेती बनी रही। आज जीवन की घिरती संध्या में , जब सब चले गए और रह गये वे दोनों —तो -तो फिर तकरार क्यों? क्या वन्या का अहम् आड़े आने लगा है?वह सदैव से पति की मानिनी बनी रही। उसके रंग में रंगी , उसके व्यक्तित्व का स्वरूप , उसकी परछाईं । आज यदि वह देव की किसी विचारधारा से असहमत होती है , तो देव को वह सहय नहीं होता । वह ग़ुस्से से आगबबूला हो उठता है। शायद यही individuality या वैयक्तिक विचारधारा है। असल में यही कारण है भिन्न होने का। प्रतिदिन की छोटी- छोटी बातें जैसे,–मैंने तौलिया कुर्सी पर रखा था , किसने उठाया? अभी दरवाजा बंद किया था -क्यों खोला? पायदान फिर से यहीं रख दिया –एक बात बार -बार क्यों बतानी पडती है? मेरे साइड- टेबल पर मेरे पेपर्स क्यों छेड़ते हो?समय पर कुछ नहीं मिलता है। इस कमरे में पर्दे नहीं लगाने , टी.वी पर सीरियल नहीं लगाना वगैरह -वगैरह। हर घर के टूटने में यही छोटी -छोटी बातें पहाड़ का स्वरूप ले लेती हैं। यही कुछ तो वन्या के साथ भी घट रहा था । छोटी सी बात पर हिटलर सा व्यवहार उसके अंतस को कचोट जाता । रिटायर्ड होने पर सारा दिन घर बैठकर मीन मेख निकालना व घर में दहशत का वातावरण बिखेरे रखना न जाने पुरुषों के अहम को कहाँ तक सन्तुष्ट करता है —वह समझ नहीं पाती ।
“में न आर फरोम मार्स , वीमेन आर फ्रॉम वीनस “….जॉन ग्रे की पुस्तक स्त्री – पुरुष के आपसी संबंधों को समझाने की सफल कुंजी है। वन्या ने बहुत चाहा कि देव फुर्सत के क्षणों में इसे पढ़ ले। लेकिन वह देव को कभी भी इस के लिए मना नहीं पायी थी। देव को ऎसी बातें बेतुकी लगती थीं। किसी एक पुरुष के विचारों को देव अपने ऊपर लाद ले ; यह उसके अहम को गंवारा नहीं था । वन्या हतोत्साहित होकर रह जाती। वन्या सोशल थी । उसे लोगों से मिलना – जुलना भाता था। वहीं देव अब इस उम्र में इसके अपवाद बन चुके थे। ओशो की विचारधारा के अनुरूप वन्या हर पल में ख़ुशी तलाशने की चेष्टा करती , क्योंकि वह पल जीवन में दोबारा नहीं आएगा । दीपक चोपडा की पुस्तकें भी उसके कमरे की शोभा थीं –जिनको पढ़कर आशावादी दृष्टिकोण अपनाना व हर बात में सकारात्मक प्रवृति बनाए रखना , उसने अपना ध्येय बना लिया था। अपने अहम् को तिलांजली देने से ही , पुन: सुख संभव था ——–वन्या यह समझ गयी थी। पहल कोई भी करे। जबकि पहल वन्या ही करती । वह कोई न कोई बात कर के देव का मूड ठीक करने की गरज से चुप्पी तोड़ देती थी । देव को बात कर ने पर विवश कर देती थी। इससे पिछले गिले धुल जाते , व जीवन फिर उसी पटरी पर चल पडता था। जिन पति -पत्नी में बातें खुलती नहीं , वहाँ रिश्ते चुप्पी के सन्नाटे के नाद से चटक कर टूट जाते हैं। इसमें उम्र की कोई लकीर नहीं रहती। नए-ब्याहे जोडे से लेकर हर उम्र में अहम् की लड़ाई ही सर्वोपरी है। वहाँ अलगाव या तलाक की नौबत आ जाती है।
देव के दोस्त मि, सिंग ..जो चंडीगढ़ हाई-कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं, उन्हें एक बार मिलने आए। वे बता रहे थे कि पचास से ऊपर की उम्र में तलाक के केसेस बहुत बढ़ गए हैं। हैरानी की बात है। तब ये दोनों भी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। वन्या तो ऊपर से नीचे तक सिहर उठी थी , यह सुनकर। वह तो आज तक यही सुनती आ रही थी कि ढलती उम्र में भी लोग एक-दूसरे का साथ पाने के लिए शादी करते हैं। एकाकीपन में जीवन बिताना कठिन होता है। पति-पत्नी एक-दूसरे के सुख- दुःख के सच्चे साथी होते हैं। क्या शारीरिक संबंध का ढलती उम्र में कम होना, या समाप्त होना क्षोभ का कारण तो नहीं? पुरुष का अहम् इससे खीझ में तो नहीं परिवर्तित हो जाता? पढे- लिखों को तो यह काम्प्लेक्स नहीं होना चाहिए। बल्कि अपने आप को अन्यत्र व्यस्त रखना चाहिए —-वन्या का मानना था।
वन्या अपने कालेज के जमाने में नाटकों में हिस्सा लेती थी। नाटकों में हर उम्र के कलाकार चाहिए होते हैं, सो अपने को इन परिस्थितियों से उबारने के लिए उसने रंगमंच के एक ग्रुप को ज्वाईन कर लिया। शायद कला के प्रति समर्पित होकर वह चैन से जीं सके। देव समय पर उसे छोड़ जाते, व समय होने पर लेने भी पहुंच जाते। इस पर वह देव की कायल हो जाती। दूरी से ही शायद नज़दीकियाँ आ जाएँ—। हर सुबह सैर करने वे एक साथ जाते, लेकिन उनके बीच अहम की कोलतार की रोड होती , जिसके दोनों सिरों पर दो अनजान हमसफर चल रहे होते। कभी-कभार अहम् को स्वाहा करके वन्या ही रोजमर्रा की बातें करके माहौल को हल्का करने का यत्न करती। देव के बात करने पर वह मन ही मन अपनी सफलता पर मान करती। हलके- फुल्के माहौल में दोनों ही दोबारा संभलकर बात करने का मन ही मन प्रण करते।
आज वन्या को कुछ नहीं भा रहा था। भीतर ही भीतर कुछ टूट रहा था। वो रिहर्सल पर भी नहीं गयी। उसे लेने घर पर नाटक के साथी कभी कार तो कभी जीप में आये, उसने तबीयत खराब का बहाना बना दिया। सारा दिन देव उसे कनखियों से देखते शांत भाव से कभी अखबार लिए तो कभी फोन पर व्यस्त रहे। वह सारा दिन सोचती रही कि शायद देव उससे आकर उसका हाल पूछेगा, लेकिन …… वह नहीं आया। वन्या की आँखें चुपचाप बरसती रहीं। रात को बत्ती बुझने पर अपने अहम् को तिलांजली देने में पहल करते हुये, वन्या धीरे से आकर देव की बगल में उसकी छाती से मुँह लगा कर लेट गयी। मानो बरसों से मरू में भटक रही थी , अब जाकर ठौर मिला हो। देव ने भी प्रत्युत्तर में उसे प्रेम – पाश में ले लिया। जीवन के सकारात्मक तन्तु उन्हें समीप ले आए थे।
वीना विज ‘उदित’