खिलने दो खुशबू पहचानो
पँखुड़ियों को अनवरत जुड़ने दो
उल्लासित कली बन सिहरने दो
पवन मदमस्त हो पहुँचती होगी
इक- इक पँखुड़ी का आलिंगन लेगी..
धीमे-धीमे आत्मसात हो इतराएगी
समाते ही ख़ुशबू चुरा सुगंधित होगी
कली रूप धर फूल का बाग़ महकाएगी
जपा-फूल नैवेध देव-चरणों में चढाएगी..
डाली से मातृ-स्नेह का अल्प लय-क्षण
विस्मित कौतुक जगाता निर्मल पल
स्वतः प्रेरित वात्सल्य की मधुर सुगंध
ज़िंदगी को खिलखिलाए निष्कौतूहल..
नव-वसन्त अभिनन्दन सरिता को
अजानी गन्ध लिए भोली मुग्धा को
डाली पर पुलकित- पल्लवित होने दो
सहज- सरल खिलने दो, खुशबू पहचानो…|||
वीणा विज ‘उदित’