चुप्पी
चुप्पी, चहुँ ओर चुप्पी
कि चुप्पी से घबरा जाती..
सरसराती हवा की साँय-साँय
पेड़ों के झुरमुट से झींगुर की धुनें
मन में संगीतमय ताल जगातीं
पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..!
छत खटखटाती बारिश की बूँदें
परनाले से बह ठौर ढूँढतीं
कहरवा की लय गूँजातीं
पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..!
कभी-कभार पंछियों का हिंडोला
शोर मचाता आँगन में उतरता
चहक मन बीन बजाती
पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..!
सर्र-सर्र गाड़ियाँ गुजरतीं रहतीं
बिन इंसान सड़कें दौड़ती जातीं
बतियाने को मन तरसातीं
पर–फिर चुप्पी से घबरा जाती..!
अति सुन्दर-सलोने घरों की कतारें
हरियाली बिछी कालीनी किनारे
भारत की मिट्टी की महक ना पातीं
चुप्पी–बस चुप्पी से घबरा जाती..!!!
वीना विज ‘उदित’
October 30th, 2007 at 4:17 pm
चुप्पी का जीवंत चित्रण-बधाई.
October 30th, 2007 at 9:09 pm
उदित जी,
आपने मन के अकेलेपन और विव्हलता को चुप्पी के माध्यम से बहुत सुन्दर चित्रित किया है|
सँजय गुलाटी मुसाफिर
October 31st, 2007 at 11:14 am
बहुत बढिया रचना है।बधाई।