अधूरी शाम

शाम !
कब दबे पाँव
खिड़की से
भीतर चली आई
मेरे शानो से लिपटकर
मेरी ज़ुल्फों को छूने लगी
उसकी नर्म उंगलियों की पोरों ने
मेरी सूनी माँग भर दी
इक अनदेखी सुहागन सज गई
शाम जवान हो चली
रात परवान चढ़ने लगी
माँग की लाली घुलने लगी
ढेरों ख़्वाब बटोरने लगी
सारा आलम
मस्ती में डूब चला
होशो हवास
ज़ुनूने-इश्क बन चला
अभी इश्क
परवान चढ़ा ही था
शाम
जो रात के पाश में बँधी थी
चुपचाप
पिघलने लगी
सुबह की आमद की
लाली बिख़रते देख़
दबे पाँव
अधूरी ही
उसी ख़िड़की से चल पड़ी …….

वीना विज ‘उदित’

2 Responses to “अधूरी शाम”

  1. Zeenat Says:

    क़विता अच्छी लगी – लेकिन पूरी तरह समझ नही आई

  2. Veena Says:

    शाम हमेशा से ही अधूरी ही है, रात के समीप रह कर…वह रात का आदि है, सम्पूर्ण रूप नहीं|आशा है अब समझ आ गई होगी| सधन्यवाद,….वीना विज’उदित’

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