छल का जाल
łउउउर नभ के आंचल में
डोलती नैय्या सी
इक रंगीली पतंग
मज़बूत डोर से बँधी
टिकी अपनों के हाथ में,
नियंत्रण कर रहा
होगा शातिर दिमाग
इन सबसे अंजान
कितने इत्मीनान से
झेलती हवाओं का दबाव|
महफूज़ है वह
यही तसल्ली
लिये जा रही है उसे
अन्जानी ऊँचाईयों पर
बेखौफ् होकर…..
इल्म नहीं कि कटी तो
ना जाने कहाँ मिलेगा ठौर
और, शायद!
अस्तित्व ही ना रहे
फँस कर छल के जाल में….!!!
वीना विज ‘उदित’
May 23rd, 2008 at 2:29 am
ज़िंदगी की एक सच्चाई आपने पतंग के मध्यम से बता दी.. बहुत बढ़िया रचना
May 23rd, 2008 at 8:01 am
बहुत बढ़िया