दीपों के पर्व में तुम खिलखिलाओ
दीपों के पर्व में तुम खिलखिलाओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ |
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गहन अंधकार में सूझे न दिशाएं
ये अमावस कहाँ से घिर आई
रोशनी लाओ, नूतन राह सुझाओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ|
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राह भूले नभ में भटकते तारे
घनघोर कालिमा में नहीं रोशनीपुंज
चंद्रकिरणे सहेज कर लाओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ|
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दिनो के फेर से टूटकर बिखरे हैं जो
बुझे-बुझे मन से दीपों को तकते
टूटे दिलों में चाहतों के दिए जलाओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ|
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दिए की लौ में जला कलह-द्वेष संग-संग
हर शाख हर पात पर खिला नवरंग
खिलती कलियों के संग मुस्काओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ |
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खुशियों से दिन के उजाले में चाँदनी
चिंतित, दुखी हृदय भूले दिवाली भी
उन्हें संग ले ज्योत के संग ज्योत जलाओ
दीपों के पर्व में तुम खिलखिलाओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ||
वीना विज ‘उदित’
November 5th, 2007 at 10:06 pm
बहुत सुन्दर ! सच कहा कि सब दुख कर भूल कर उजालों मे आनन्द मनाया जाए..
November 6th, 2007 at 6:31 am
बढ़िया है. दीपावली की बहुत बधाई और शुभकामनायें.
November 6th, 2007 at 10:23 am
दिवाली की बधाई\बढिया रचना लिखी है।बधाई।
दिए की लौ में जला कलह-द्वेष संग-संग
हर शाख हर पात पर खिला नवरंग
खिलती कलियों के संग मुस्काओ
मन के अँधेरों में भी दीप जलाओ |