चूड़ियों की प्यास
रंग-बिरंगी चूड़ियों ने गीत गा सजाई कलाई
खन-खन करतीं ,खुशियाँ बिखरा इतराईं |
पर,जब भी बेरहमी से मरोड़ी गई कलाई
सर्द आहों से शरारे उठे ,हुई रुसवाई |
मिलन में ही विरह की चादर ओढाई
इंसानियत यह देख ,ज़ार-ज़ार शरमाई |
सजी इतराती थी जो नरम कलाई पर
चटक कर टूटी – रोई, हुई ना सुनवाई |
प्रलाप सुन मदारी ने टूटे टुकड़ों का
हर टुकड़ा प्यार से सहेजा , की चतुराई |
जीने का सबब उन टुकड़ॉं में ढूँढ
कलाइड़ियोस्कोप में बंदकर की कमाई |
तरसी थीं जो साजन के प्यार के लिये
नन्हे चेहरों पर हँसी बिखेर मुस्काईं |
टुकड़ॉं में जुड़कर, नवरंग बिखेरकर
नवरूप से सज ,चाहतों की दुकान सजाई |
अधूरी पूर्णता में पनपी थी जो प्यास
अस्तित्व मिटा ,खुशियाँ बाँट प्यास बुझाई |
टूटन की चुभन अंतस में थी जो कुलबुलाई
नित नव-रूप सजा ,नन्हे-मन लुभा हर्षाईं | |
वीणा विज ‘उदित’