दहलीज़

उसके धूल-धुसरित छोटे-छोटे नँगे पाँव हरी-ताज़ी दूब पर लाँन में यहाँ से वहाँ भाग रहे थे | दोनो हाथ सामने की ओर फैल चुपके-चुपके तितलियों को पकड़ लेने की भंगिमा में खुले हुए प्रयत्नशील थे | कितना कौतुक—!,कितना उत्साह–, उतनी ही चपलता थी उसके हाव-भाव में | बेखबर थी वो आसपास से |खिले फूलों पर ही तितलियाँ क्यों मँड़रा रही हैं? क्या करती हैं ये उन पर बैठकर? माँ कहती है, ‘रस चूसती हैं फूलों से ‘|वो खोजती है , कहाँ है रस ? वह गुलाब की एक-एक पँखुड़ी तोड़कर रस ढूँढती है-नहीं पा सकी वो रस |माँ भी तो उसे ,’मेरी गुलाबो’ कहती है |वो भी तो फूल सी है, तो फिर ये उस पर क्यों नहीं मँड़राती हैं ? ये उसके हाथों से क्यो ड़रती हैं ? वह तो उनके रंगों को छूकर दुलारना चाहती है | बस इतनी सी बात भी नहीं समझती हैं ये | हैरान व परेशान है बाल-मन ! कौतुहलता है !!!!
थक हार कर धरिणी पर ही पसर जाती है | उसे धूप से बचाता , छाँव देता पास ही खड़ा वृक्ष मुस्कुरा उठता है | सोचता है , फूल खिलते हैं -मुर्झा जाते हैं , लेकिन इनका आकर्षण बाल-मन, प्रेमियों, भक्तों, भँवरों और तितलियों आदि को लालायित किए रहता है | वृक्ष तो सन्नाटों के पहरेदार बने सब लीलाओं के दृष्टेता हैं | गवाह हैं ये वहाँ घटी सब घटनाओं के | इस नन्ही जान को नित बाग़ में दौड़ते देख वह भी मन भरमाए रखता है |
उस दिन उसके साथ ढेरों सखियाँ थीं |सभी नवरात्रि की कँजकें–!सब के माथे पर लाल सिन्दूर की बिन्दी और कलाई पर लाल धागे बँधे थे | उनकी खिलखिलाहट से बहार आ गई थी |उन्हें देख ढेरों तितलियाँ भी उन्हें रिझाने आ गईं थीं | वे आपस में लुका-छिपी खेल रही थीं| किलकारियों से गूँज उठा था सारा माहौल | हमजोलियों के संग उसकी खुशी असीम थी |सब इधर से उधर बेपरवाह दौड़-दौड़कर तितलियों को पकड़ने का यत्न भी कर रही थीं |
जब आम का बौर झरा तो कच्ची कैरियों ने बाल-मनों को ललचा दिया | उसे भी कैरी की मिठास भाती, वह भी सखियों संग छुप-छुपकर कच्चे आम खाती थी | माली को दूर से ही आते देखकर सब शैतानी से भाग जातीं |उसके डर से भागने का मज़ा ही कुछ और था | पेड़ों पर झूले पड़ गए थे | मधुमक्खी के छत्ते की तरह ढेरों कन्याएं आ जाती थीं, पींगें चढाने | अपनी पारी आने पर इसकी बाँझें खिल जातीं |इसमें एक नया जोश आ जाता था | उनका अनुसरण कर वह भी शारीरिक प्रवाह बढाती, उसमें अनोखी ऊर्जा भर जाती |और पीछे छूट रहा था तितलियों का आकर्षण -उसका स्थान ले रही थी पींग ऊपर चढाने की उमंग !झूले की उडान उसे इतनी ऊपर ले जाती कि उसके मन में आसमान छूने की ललक जाग उठती | कल्पनाओं की उड़ाने आकाश में उड़ती पतंगों की डोर बन जातीं |
डोर–! डोर जो ऊँची उठकर कभी भी कटकर , कहीं भी गिर जाती है | पतँग की ऊँची उड़ान को ज़मीन की भेंट चढाकर | अदृश्य व अनिश्चित मंज़िल का जामा पहनाकर पींग धीरे-धीरे वापिस आ ठहर जाती , अपनी धरा पर | और ठहर जाती –उसके संग ही उसके कोमल मन की उड़ान !
रात–छत पर बिस्तर में लेट , मुग्ध हो वह अनगिनित जगते-बुझते रोशनी के पुँज तकती | उनका अनुसरण कर अपनी पलकों को भी कभी खोलती तो कभी बंद करती | सोचती , वो भी इस विराट का हिस्सा इक टिमटिमाता तारा है | उसके भीतर से भी प्रकाश की किरणें
फूटकर जगमग-जगमग कर रही हैं | सप्त-ऋषियों को तारों के झुंड़ में खोज , वो उनका आकार हथेलियों पर बनाती | ध्रुव तारे की कहानी दादी ने सुनाई थी | उत्तर दिशा में उसे वो श्रद्धा से नमन करती | चाँद– हाँ , चाँद को निहार कर वो बाँवरी हो जाती थी | खोजती , पर चरखा कातती बुढिया उसे दिखाई नहीं पड़ती थी | हर रात चाँद का आकार बदलता देखकर वह अपने आकार को दर्पण में निहारती | वो भी तो माँ की “चँदा ” है | उसका आकार भी तो बदल रहा है | लेकिन चाँद की भाँति एक माह पश्चात उसका आकार पुनः वैसा ही नहीं हो जाता | वो तो निरंतर बदल रही है शायद!!
पिछवाड़े मुर्गियों का झुंड़ हरियाली में भागता है | उनका लीडर मुर्गा जोर से बाँग लगाता है’ कुकड़ू कूँ’ ! मुर्गीखाने में बैठी मुर्गी जैसे ही बाहर आकर ‘कद्दैं-कड़ैं ‘का शोर मचाती है ,तो वह दूर से दौड़ी जाती है , उसका अंडा देखने | कहाँ से आ जाता है मुर्गी के नीचे अंडा ? हैरान होती है | कौतुहलता है कि मुर्गा वहाँ जाकर क्यों नहीं बैठता ? वह अंडा क्यों नहीं देता ? ढेरों प्रश्न छोटे से दिमाग़ को परेशान कर देते हैं | लेकिन कुछ ही पलों में वो भूल जाती है- यह प्रश्नों का सिलसिला | रोज़
ही सोचना, हैरान होना , उत्सुक होना और रोज ही भूलना –यही क्रम चलता रहता है |
उसके भीतर एक सूरज का प्रकाश प्रतिदिन आलोकित होता है | प्रकाशमय कर देता है भीतर के अंधकार को |कब आई आँधी , कब पत्ते झर गए, परिसर भर गया धूल व पेड़ से टूटे पत्तों से –उन्हें झरता देख
उसका मन क्यों दुखता है? उसे लगता, वृक्ष रो रहा है | असमय की टूटन वह सह नहीं पाती | पिछवाड़े की सीढियों पर बैठ अकेली वह वक्त की दौड़ती रफ्तार को बाँधने का यत्न करती | माँ की ड़ाँट मन पर चोट कर जाती है | समझ नहीं पाती कुछ | “अकेली मत जाना सहेलियों के घर , अब तुम छोटी नहीं रही | ” अब और तब (जो बीत गया है) उसके बीच के अन्तर को समझने का यत्न विफल हो जाता है | गुड़े-
गुड़िया का ब्याह तो वो अभी भी रचाती है सब सखियों के संग | वो तो ब्याह कर भी उसके संग रहते हैं | पर सामनेवाली दीदी ब्याहकर रोती हुई दूर चली गई है |न जाने क्या गोल-माल है ? बहुत परेशान है–!
त्यौहारों पर उसे काँच की चूड़ियाँ पहनने का बहुत शौक है | टूटी हुई चूड़ियाँ बटोरकर ऊपर छत पर वो उनको जोड़-जोड़कर फूलों के ड़िज़ाईन बनाती है , पर भैय्या आकर सब बिगाड़ देता है | कितना भला लगता था न ; रात को भैय्या के साथ गलबैंय्यां ड़ालकर सोना ! लेकिन माँ ने अब अलग बिस्तर लगाने शुरू कर दिए हैं |वैसे तो अच्छा है भैय्या की टाँगें और नहीं खानी पड़ॅंगीं |
उसके भीतर कोलाहल मच जाता है जब बंद कमरे से तरह-तरह की आवाजें आती हैं | भीतर झाँकने का प्रयत्न करती है , लेकिन अँधकार अपने में सब लील लेता है |आख़ीर चाचा-चाची दरवाजे के भीतर शोर क्यों करते हैं ? प्रश्नों की कतार फिर उसके भीतर कोलाहल मचाती है | चाची अस्पताल जाकर छुटकी मुनिया ले आई है | वो भी अपनी एक मुनिया लाना चाहती है | उसे क्यों कोई मुनिया दिलाने अस्पताल नहीं ले जाता ? बेबसी में रास्ते खो गए हैं ! वो जाए भी तो किधर–? कुछ नहीं सूझता !
रानी ने स्कूल में बताया कि अब वह बड़ी हो गई है , इसलिए उसके घर अगले हफ्ते उसकी पूजा है, उस दिन वो स्कूल नहीं आएगी |
उसने भी घर आ माँ से पूछाः” माँ! मेरी पूजा कब होगी?”
माँ ने अर्थ भरी मुस्कुराहट चेहरे पर लाते हुए कहाः ‘हमारे में पूजा का रिवाज़ नहीं है | हाँ , तुम्हे दूर बैठा दिया जाएगा | खाना भी वहीं मिलेगा | पर अभी नहीं , बड़ी होने पर !’
बड़ा होना–क्या अभिशाप है? नहीं होना उसे ‘बड़ा’ | दादी ने कहानी सुनाई–‘पारो बड़ी हो गई थी | पारो ने चूड़ीवाले से चूड़ियाँ चढवाईं |
वही चूडियाँ उसे डस गईं | ‘साँप तो डसता है, लेकिन चूड़ियाँ डस गईं ?
नहीं पार पा सकी वो इस कहानी का! परेशान है—!और,
वह दिन भी आया , जब उसके भीतर का बचपन फट पड़ा | जवानी की दहलीज पर कदम रखकर बाहर निकलने के लिए | माँ ने उसे अलग बैठा दिया |खाना भी वहीं दिया, रानी की तरह पूजा नहीं करवाई | नवरात्रे फिर आए | घर- घर कंजकें बिठाई गईं | कंजकों में पहले वो पड़ौस के घरों से प्लेट में हल्वा, पूड़ी,काले चने और पैसे लेकर घर आती थी |गुल्लक में पैसे डालकर खुश होती थी | अब उसे माँ ने समझाया कि वो ‘कंजक’ नहीं रही | वह बड़ी हो गई है , वह वहाँ नहीं बैठेगी | उसके पैर कोई नहीं पूजकर धोएगा अब |
उसे नहीं भा रहा था, ” बड़ा होना” | स्वच्छन्द हवा में साँस लेना अब नियंत्रित हो गया था |उसके गले में गुठली फँस गई लग रही थी , जो न निगलते बनती थी न थूकते !!
वीणा विज ‘उदित’
सितम्बर ‘११

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