ख़ुशनुमा हवा
बंद दरवाजे पर टिक टिक सी हुई
लगा द्वार खटखटाने हवा थी आई
ख़ुशनुमा हवा भीतर आना चाहती है
भीतर की मायूसियों को छूना चाहती है
उनमें इक नई उमंग भरने को
सारे ग़म अपने आंचल में लेने को
जन-जन के मानस पटल पर छाने को
ख़नकती आवाजें छनकाने को
उसे सारे पट खोल आने दो
मुझे अपनी साँसों में भर लेने दो
तरंगित ध्वनि मेरे रोम-रोम में
प्यार की मिठास घोलना चाहती है
दम घुटता था भीतर ही भीतर
राहत का नहीं था कोई भी मंजर
नज़रें अटकी थीं रैहगुज़र पर
खुशनुमा हवा को कैसे मिला ये दर !!!
वीना विज ‘उदित’