तुरपाई (कहानी)
तुरपाई
सर्द झोंकों से बचने के लिए बदन पर चीढ़ के पेड़ों की छाल लपेटे ‘पाइन लाज, ‘पहलगाम से चंदनवाड़ी जाते हुए जो पहला पुल लिदर दरिया पर आता है उसके दाईं ओर स्थित है। चारों ओर बिखरी हरियाली के विभिन्न शेड्स से भी चटकीला हरा रंग है उसकी छतों का। डबल स्टोरी बिल्डिंग जिसके पांच कमरे नीचे एक ही कतार में ,और पांच ही ऊपर हैं। लॉज के दू्उ उ र तक फैले घास के मैदान उत्तर की ओर जा तिकोने हो जाते हे। और पूर्व की ओर सीधे खड़े पहाड़ की तराई से होते हुए उत्तर में ये ढेरों पेड़ दामन में समेटे उबड़ खाबड़ धरातल बनाते हुए शेषनाग झील से आती वेगवती बर्फीली धारा जो आबशार बनी पर्वतों से धरा पर उतर रही है उस तक जाकर समाप्त हो जाती है,… एक स्वर्गिक आभा और अनुपम सौंदर्य का एहसास जगाते हुए।
मध्य में लॉज से तकरीबन बीस कदमों की दूरी पर सेब के बड़े-बड़े पेड़, जोकि सेबों से लदे हुए हैं। उन पर झूले डले हुए हैं। बरबस ही यूं राह चलते सैलानियों का ध्यान उस ओर खिंचता है।
सैलानीगण सेबों के साथ फोटो खिंचवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। अंततः चौकीदार से पूछ कर कई लोग भीतर आ फोटो खिंचवाते, सेबों का स्वाद चखते, उन पर पड़े झूलों पर बैठ भी जाते हैं। उन के खिले चेहरे इस बात की गवाही देते हैं कि उनका कश्मीर आना अब सार्थक हो गया है। यही मेन रोड का आखरी बड़ा गेट और साथ ही लगता छोटा गेट भी है । (जिससे वह आती जाती थी, चौकीदार से बिना पूछे…)
इन्हीं सेब के पेड़ों से छनती आती धूप के नीचे पलंग डलवा कर कोई ना कोई पुस्तक पढ़ना मेरी दिनचर्या में मौसम के अनुकूल शामिल है। हल्की सी मीठी थपकी देती बयार कभी-कभी मुझे नींद की आगोश में भी ले जाती है। कभी कोई पक्षी चोंच मारकर मुझ पर सेब गिराता है , तो चौंक कर उठ के बैठ जाती हूं। कभी तेज हवा के झोंकों से पत्तों की सरसराहट उनका नृत्य करना मुझे मुग्ध किए रहता है, तो कभी पहाड़ों की गोद में अठखेलियां करते बादल। लेकिन इधर कुछ दिनों से एक बकरवाल (गुज्जर) लड़की गोद में नन्हा बच्चा उठाए चुपचाप चौकीदार से पूछे बिना छोटे गेट से भीतर आ उत्तर की ओर नदी की ढाल बने पत्थरों पर आकर बैठ जाती है। मैं पढ़ती या कुछ लिखती उसे कनखियों से देख लेती हूं। कभी वह बच्चे को घुटनों पर बिठा कर खिलाती ,कभी अपनी छाती से लगा उसकी भूख मिटाती तो कभी दोनों वहीं घास पर लिपटकर कुछ घड़ी की झपकी ले लेते। मैं देख कर भी अनदेखा कर देती हूं। लगता, वह चैन से कुछ घड़ियां अपने बच्चे के साथ जी रही है …..यह उसका अधिकार है। शायद, एक नारी का दूसरी नारी के प्रति यह सहज सहानुभूति का भाव है।
उस दिन मैं “पौलो कोएल्हो” की ‘द अल्केमिस्ट’ बड़ी तल्लीनता से पढ़ रही थी कि लगा मेरे करीब कोई है। नज़रें ऊपर उठाईं तो वही बकरवाल लड़की बच्चा उठाए कह रही थी,
” बिब्बि! अज, मैं खान नूं कुज नई लियाई , कुज खान नूं दे दे। बड़ी पुक्ख लग्गी ए।” ( बीबी,आज मैं खाने को कुछ नहीं लाई, कुछ खाने को दे दे बड़ी भूख लगी है ) देखती हूं एक पीला ज़र्द़ चेहरा मेरे सम्मुख है, जैसे उस चेहरे पर सदा से कोई पीड़ा अपना आधिपत्य जमाए हुए हो। उसे बैठने को कह मैंने नौकर से खाना मंगवाया। खाना लेकर वह वहीं पत्थरों पर चली गई। खाना खाकर वहीं पास बहते दरिया से बर्तन धो कर मेरे पास पड़े मेज पर रखकर, वहीं मेरे पायताने जमीन पर बैठकर मुझे निहारने लग गई। लगा, उसमें मुझसे बात करने की ललक उठी है क्योंकि हमारे बीच प्रतिदिन ना बात करते हुए भी शायद भीतर ही भीतर एक निस्पंद संवाद चल रहा था। जिससे एक अपनत्व सा बन गया था हम दो अजनबियों के बीच। सब समझते हुए भी मैंने उसे अनदेखा करते हुए पढ़ने का उपक्रम किया।
” बिब्बि! ऐ जगे तेरी ए?”
मैने “हां” में सिर हिला दिया उसे बिन देखे ही। पुन: बोली, “बच्चे नई ने?”(बीबी यह जगह तेरी है? तेरे बच्चे नहीं हैं?)
यह सुनकर मैंने किताब से नजरें हटा ही लीं और जवाब दिया कि वह ब्याहे गए हैं। अपने-अपने घर हैं। यहां हम दोनों और यह सब नौकर हैं और पूछा, “तूं कहां से आई है?”
उसने हमारे पूर्व की ओर की पहाड़ी की ओर इशारा करके बताया कि वहां ऊपर उनका डेरा है। वे खानाबदोश हैं, जो भेड़ -बकरियों को नई- ताजी घास खिलाने के लिए पहाड़ों पर घूमते रहते हैं। पीछे अखनूर से आए हैं। तभी मैंने गौर से पूर्व की झाड़ियों में पहाड़ के दामन में ढेर सारी काली- सफेद भेड़- बकरियां घास व नए पत्ते चरते देखीं।
इस पर वह झट से बोली,” इंदी ही राखी कर रई आं। परों कोई इक बकरी ही खा गया। पता कि कोई जनावर से कि मनुख ? हां, बकरे दी टंगा दरिया ते कुत्ते खांदे सी ; ओई विखया।”(इन भेड़- बकरियों की रखवाली ही कर रही हूं। परसों कोई एक बकरी ही खा गया। मालूम नहीं कोई जानवर था कि मनुष्य? हां, बकरी की टांगे नदी किनारे कुत्ते खा रहे थे—यही दिखा।) उसकी बात सुन मैं हैरान कि इस पहाड़न की धारणाएं कितनी सचेत हैं ! इसे भी जानवर और मनुष्य में एक जैसे गुण दिखे; तभी तो दोनों को एक ही तराजू के पलड़ों में तौल रही है। मैंने अफसोस जताया जो शायद उसे तसल्ली बख़्श लगा। इस पर वो एकदम से उठी। पीठ पर चुन्नी बांधकर बच्चे को उस में डाल कर सामने की सीधी पहाड़ी पर टेढ़ी चढ़कर भेड़- बकरियों को ऊपर की ओर हांक कर, वापस आ छोटे गेट से बाहर चली गई। मुझे अपने ख्यालों में उलझा कर…!
अगले दिन खाना खाकर किताब हाथ में ले मैं साथ लगते दरिया के बर्फीले पानी में पैर डालकर वहीं किनारे पड़े ढेरों पत्थरों में से एक बड़े से पत्थर पर ओशो की पुस्तक को पढ़ने बैठी तो कुछ पलों में ही मेरे पैर बर्फीले पानी से सुन्न हो गए। झट पैर पानी से बाहर निकाल मैं किताब बंद कर चट्टानों से टकराकर चांदी का रूप धरती जल की धाराओं को निहार रही थी कि लगा कोई मुझे निहार रहा है। वही थी, कौतूहल से भरी दृष्टि मुझ पर गड़ाए हुए। उसे देख मुस्कुराते हुए पत्थरों पर चढ़कर मैं इस पार आ, पत्थर पर बैठ गई। वह वहीं नीचे के पत्थर पर मेरे पास आ बैठी थी। तो सहज भाव से मैंने पूछा,” नाम क्या है तेरा?”
वो बोली, “शबनम”।( नाम मुझे अच्छा लगा!”
“तेरे मर्द का क्या नाम है? वह कहां है? वह क्यों नहीं आता?”
“नूरा! नूरा आसी ना! हुणे तां कोहड़े लै के डेढ़ मीने ली अमरनाथ गया ए। दियाड़ी दे दो हजार कमाई करसी। परों तों इस वहरे बोत यातरी आया ए। चंगी कमाई हो जासी।”
(नूरा नाम है उसका। नूरा भी आएगा। अभी तो दोनों घोड़े लेकर डेढ़ महीने के लिए अमरनाथ गया है। एक दिन के दो हजार कमाई करेगा। पिछले वर्ष से इस बार अधिक यात्री आया है कमाई अच्छी हो जाएगी।)
“फिर घर में और कौन-कौन हैं?” मैंने पूछा!
” ईत्थे क्हर विच्च सौअरा से। देर तां दरानी अखनूर ने। डंगरा नूं ते नाल मक्की होर ज़मीन दी राखी लई। “(यहां घर में ससुर है। देवर और देवरानी अखनूर में पशु, मक्की और जमीन की रखवाली करते हैं।)
जो भी था, पर उस लड़की के पास से बाकी बकरवालों की तरह भेड़- बकरियों की बदबू नहीं आ रही थी। वह साफ-सुथरी थी। इसलिए बात हो पा रही थी। लगा, पति की अनुपस्थिति में इसका वक्त यहां गुजर रहा है— अच्छा ही है! मैं उठकर लान की ओर आ गई थी। वह भी सदा की तरह छोटे गेट से बाहर—यह गई कि वह गई!
एक दिन दोपहर के खाने में राजमा- चावल बने तो उसका ख्याल आ गया। राजू को बोला कि उसके लिए भी रख देना। आती ही होगी, खा लेगी। अब तो हर दिन मुझे उसका इंतजार रहता था। वह आई, उसने चाव से खाना खाया और बर्तन धो कर रख दिए फिर मेरे पैरों के पास आकर वहां जमीन पर बैठ गई।
“टंगां कुह्ट दयां बिब्बि?”( टांगे दबा दूं बीबी?)…बोली।
मैंने’ना’ कहते हुए झट से पैर ऊपर पलंग पर कर लिए। खाने के बदले में शायद वह कुछ करना चाह रही थी, जो मुझे गंवारा नहीं था। प्रत्युत्तर में उसके होठ खुले… फिर बंद हो गए। शायद शब्द हलक तक आकर अटके जा रहे थे। उसके चेहरे पर आते- जाते भावों को पढ़कर लगा जैसे उसके भीतर कोई अंतर्द्वंद चल रहा हो! मैंने पूछ ही लिया,” कुछ कहना है क्या?”
सारे जिस्म का दर्द अपने चेहरे पर समेट वो आंखों की पोरों से झरने लगी। साथ ही सुबकियां लेते हुए मेरे घुटनों को उसने कस कर पकड़ लिया और वह फट पड़ी! लगा, जैसे कोई बादल बादल से टकराता है और बरस पड़ता है…
” मेरा पल्ला तां फट के तार-तार हो गया ए बिब्बि! हुण कौण करसी तुरपाई,…?”
(मेरा आंचल फटकर तार-तार हो गया है। अब उसकी तुरपाई कौन करेगा बीबी?)
मैं हैरान परेशान हो उसका मुंह तक रही थी। उसके कंधे पकड़ कर उसे ठीक से बिठाया व पूछा, “क्यों? क्या हो गया है ऐसा कि तेरा पल्ला फटकर तार-तार हो गया है और तुझे तुरपाई की चिंता हो रही है?”साथ ही साथ मैं सोच रही थी कि कैसे मानूं यह अनपढ़ और गवार है! कितनी सुंदर व कटु अभिव्यक्ति है इसकी!
“बोल ना शबनम”…! मैंने फिर कहा।
मेरे स्नेहपूर्ण आग्रह से अभिभूत हो वह पिघल उठी। मानो, पैर की बिवाई फूट रही हो और वह असहाय पीड़ा से छटपटा रही हो।
बोली,” तैनूं दसया सी न मेरा मर्द क्हर विच्च नईं बिब्बि! ओह्दे पिच्छों मेरे सौरे ने मैंनूं जबरदस्ती इस्तेमाल करना शुरू कर दित्ता ए ! ओह कैंदा, ” ओ कित्थे जावे? घर दी गल्ल ए । तैनूं की फरक पैसी ? तेरे नाल तां मर्द ही ओसी ना! तूं अक्खां नूटी रखीं। नूरे दे वापस आउण ते मैं कदे तेरे कोल नईं आवांगा। तूं आपणी ज़ुबान बंद रक्खीं। हुंणे चुपचाप चलण दे। मैं की करां बिब्बि? मेरा पल्ला तां फट गया ए ना! निक्की सी तां मां करदी सी मेरे फट्टेयां दी तुरपाई।हुण एद्दी तुरपाई कौण करसी?दस्स न भंबिब्बि !!!”
(वह बोली मेरा मर्द घर पर नहीं है मैंने तुझे बताया था ना? उसकी अनुपस्थिति में मेरे ससुर ने मुझे इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कहता है, वह कहां जाए? तुझे क्या फर्क पड़ता है। तेरे साथ तो मर्द ही होगा न! तू आंखें बंद रखना। नूरे के वापस आ जाने पर मैं कभी तेरे नजदीक नहीं आऊंगा। तूं अपनी ज़ुबान बंद रखना। तब तक ऐसे ही चलने दे। अब मैं क्या करूं बीबी? मेरा आंचल तो फट गया ना! छोटी थी तो कपड़े फटने पर मां सी देती थी। अब किसके पास जाऊं? बता ना कभी हो सकेगी इसकी सिलाई?बीबी!)
इतना कहकर वह अपनी छाती पर मुक्के मारकर विफ़रने लगी। उसकी असहनीय पीड़ा की तड़प से मेरी आंखें भी सजल हो उठीं थीं। मैं सक़ते से की हालत में बैठी थी। उसे स्नेह से पकड़ कर मैंने अपने पास बिठाया। मेरी आलोड़ित होती संवेदना उसके दर्द की संवेदना से संपृक्त होने को आतुर हो उठी। अब क्या कहूं? क्या करूं ? कैसी सलाह दूं? मेरी समझ में नहीं आ रहा था। सिवाय इसके कि उसका दर्द सुनकर बंटा लूं।
एक ब्याहता अपना सर्वस्व अपने पति को ही मानती है। उसमें किसी और की गुंजाइश ही कहां होती है? फिर जो रिश्ते से आदर योग्य, भरोसे योग्य, रक्षक हो वही खेत की बाड़ बनकर खेत को ही खा गया हो तो किस से गिला कीजे…? नूरा अपने बाप के संरक्षण में अपनी पत्नी और बच्चा छोड़ गया था। अब किसका भरोसा कीजे? मुझे लगा, जैसे संपूर्ण नारी-वर्ग एक संवेदनशील प्राणी ना होते हुए एक निर्जीव वस्तु है; जिसे जरूरत पड़ने पर कोई भी इस्तेमाल करे और फिर छोड़ दे। ऐसे क्रूर सामाजिक यथार्थ के समक्ष हम हार जाते हैं। हमारे हाथ बंध जाते हैं। हम नकारे हो जाते हैं। पुरुष जाति के प्रति मेरा मन वितृष्णा से भर उठा। कई दम्भी पुरुष सारे नारी- वर्ग के लिए असहिष्णु बने रहते हैं। अपनी बेबसी भरी रातों का दर्द संभाल वह अपने फटे हाल आंचल को मेरे पास लाकर ‘तुरपाई’ की गुहार लगा रही थी।
मैं उसका पीड़ा से मथित चेहरा पढ़ रही थी। औरत ना होकर जैसे वह एक उतरन बन गई थी। सोच रही थी… इंसान भूखा भेड़िया बन गया है, तभी तो अपनी भूख और हवस मिटाने को वह इतना नीचे गिर पाता है। मैं केवल शबनम का दर्द़ साझा कर सकती थी, क्योंकि वह अंजान लोग थे। मेरी असमर्थता वह भी समझ रही थी तभी तो अचानक उठ खड़ी हुई हर रोज की तरह। बच्चे को पीठ पर बांध, अपनी भेड़- बकरियां हांक फटाफट छोटे गेट से बाहर चली गई। मानो कुछ हुआ ही ना हो। बस दिल हल्का कर लिया था उसने , एक नारी की पीड़ा को दूसरी नारी से साझा करके! मेरी दृष्टि दूर तक उसका पीछा करती रही। पर, वह फिर कभी वापस नहीं आई। मैं हर दिन छोटे गेट पर नजर टिकाए उसकी राह तकती थी।
हां, कुछ दिनों बाद एक सजीला, गठीला गबरु बकरवाल उन्हीं भेड़- बकरियों को हांकने छोटे गेट से भीतर आया। मैं समझ गई यही मेरी शबनम का (अपनी लगने लगी थी अब वह) नूरा है। तभी मेरा उद्वेलित मन शांत हो गया। लगा, अब वक्त के साथ- साथ नूरा कर देगा उसकी ‘तुरपाई ।
वीणा विज’उदित’