स्वयं की तलाश
स्वयं की तलाश
इस भीड़ भरी दुनिया में स्वयं को तलाशने के लिए
रंग-बिरंगे गुब्बारों सी रंगीन बनकर
दू–र आसमा की ऊंचाइयों को छूना चाहती हूं मैं !
प्यासी आकांक्षाओं से भीग
पांव है कि सौ-सौ मन के भारी हो चले हैं
कहीं धरती की छाती में धंस ना जाऊं
गैस भर दो मुझ में, मैं—मैं ना रहूं।
दलदल में उतरने के भय से आक्रांत मन से मुक्त
हल्की हो ऊपर उठना चाहती हूं मैं !
डोर से ना बांधना खींचने को मुझे
रिश्तों की मोहिनी डोर से तोड़ दो मुझे
ऊंचाइयां छूने खुले आकाश में छोड़
असीमित अंबर की सीमाओं को तोड़
अंतरिक्ष की गहराइयों में पहुंच ठहर जाऊं
अविराम बिचरते ग्रहों की होड़ में फंसना चाहती हूं मैं !
नहीं जान पाती किन सीमाओं से टूट कर
किससे चाहती हूं बंधना अंतर से जूझ कर
सौर मडल के असंख्य ग्रहों की भीड़ में
पहचान बनाए बिन शायद गुमना चाहती हूं मैं
क्यों कि
स्वयं को तलाशना चाहती हूं मैं !!
वीणा विज’उदित’
21/3/21