सुषुप्त वेदना

वक़्त की ग़र्द से
ढँकते चेहरे
तार-तार होते
गुमनामी में जीते
अहम् से पीड़ित
स्वार्थी मानस
नाम का डंका बजाता
अपना मान बढ़ाता
ताक़ पे रखकर
ग़र्त भरे चेहरे को
सुषुप्त वेदना
अहम् की जब
हावी होती मन पर
काश!
समझ पाता
अन्तर्वेदना से प्रताड़ित
नेपथ्य में बजा
धीमा संगीत
मानव मन का
समर्पण !!

वीणा विज ‘उदित’

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