झरते पलाश

तीक्ष्ण भेद रहे जो
देश के रक्षकों को
उन पत्थरबाजों की
हो रही भत्सर्ना !
मीडिया गर्जन कर रहा
लेकिन, वो भी
देख नहीं पाता
शब्द-वाणों के हथियार
घायल करते वेगरत
दिलों को छेद-छेद कर!
‘अहम्’विजयी रहा
नर में, नारी की
‘मैं’सदा मरती रही
विफरती,गिरती,पड़ती
फिर-फिर अदम्य
साहस ले उठती !
प्यार के छलावे में बह
संवेगों को आहत करती!
पत्थर पड़ते अहसासों पर
ज़ख़्मी होती अनुभूतियाँ
स्वाभिमान से जीए कैसे
दुबकी दिल की बीथियों में
जीवन की मजबूरियाँ
नारी!गृहस्थ के प्रांगड़ में
पूरी होकर भी अधूरी हो
झर-झर जब झरते पलाश
आती अहम् के आड़े प्यास !!

वीणा विज ‘उदित’

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