अन्तर्प्यास

सदियों से अन्तर्प्यास लिए बैठी हूँ
क्षुधा बुझाने अन्तर्जल बरसा नहीं ।
शुभ्र-चन्द्रिका नित उतरती नभ से
मुझको छूती कोई चन्द्रकिरण नहीं ।
धरणी को नित अंग लगाए आकाश
कोरी मृगतृष्णा है जग ग्याता नहीं ।
साँझ का सूरज निगले है सागर
कौतुक अगन का तल जाने नहीं ।
मलय मस्ताई हौले से पत्तों को छू
कोंपलें दुलारने बसंत पहुँचा नहीं ।
जल-क्रीणाएँ लख मृणालिनी अधीर
पंखुरि रस पीने भ्रमर गुंजन नहीं।
श्यामल बदली मुख चूमें मेघराज
दामिनी कौंधी, घटा बरसी नहीं ।
वंचित स्वप्नों की चारागाह में हमें
चौकड़ियां मारने का वर्चस्व नहीं ।
पल्लवों को रौंद रहे मदमस्त मतंग
लगता अन्तर्प्यास कभी बुझेगी नहीं ।।

वीणा विज ‘उदित’

अर्थ, मलय-बसंत के आगमन को बताने वाली हवा।
मतंग-हाथी ,वर्चस्व- अधिकार ।

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