सुगबुगाहटें

क्यूँ इस कदर टूट कर
चल दिए बिन बोले
ढोए हुए रिश्तों की
गिरह तो खोलो
बिखरे पड़े हैं भीतर
जो ढेरों ख्याल
राज़े दिल का सुराग दे दो
ग़र हम हैं बा-ऐतबार !
चुभ रहे हैं जिस्म में
छतराए हुए काँच के टुकड़े
ख़ामोशी का दामन
ओढ़े हैं लोथड़े
क्यूँ नज़रंदाज़
कर गए मुँह फेर
गुरेज़ किया
पलटने को एक बार !
आमादा हैं
पसरने को तन्हाई
तन्हा जिस्म में
सुलगती रूह तन्हा
दस्तक ख़्याली की
जुस्तजू
रूहे मकीं की
तफ़सीर है बेकार !
शबे विसाल को
शबे हिजरां किए
ख़लवत के आलम में
रखे किए
मायूस हो चली है
ज़ीस्त हार कर
तकती है अब आईना
पलट कर बार-बार !
सुगबुगाहटें ढल रही हैं
रँजिशों में
सदियों से लम्बे हुए
वक्त के लम्हे
पीती रहीं आँखें
इंतज़ार का ज़हर
बेबसी के आलम में
ख़ुद से हुए हैं शर्मसार !!

वीणा विज ‘उदित’
अर्थ…
सुगबुगाहटें-भीतरी बेचैनी
गिरह -गाँठ ,बा-ऐतबार-भरोसे के लायक, रूहेमकीं-दिल में रहने वाले, तफ़सीर-व्याख्या, शबेविसाल-मिलन की रात, शबेहिज़रां-जुदाई की रात, ख़लवत-तन्हाई, रंजिश-नाराज़गी।

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