लम्हों का छोर
वक्त ने खो दिए वो लम्हे
जो मेरे अपने थे
जिन्हें संजोया था मैंने
जिनमें मैंने चलने का उपक्रम किया
कदम-कदम आगे बढ़ी
कंकर-पत्थर चुभ-चुभ गये
पावों के छाले रिसे
अवरोधों पर अंकुश ना लगा
नरम दूब की गुहार
लगाते लम्हे
तलाशते -फिरते रहे उम्र भर
उन लम्हों का छोर ना मिला ।
वीणा विज उदित