अनूठा प्रतिकार
Wednesday, October 25th, 2017उर्वरा माटी थी बगिया की रोपी पनीरी फूलों की कोमल , नरम गोशे प्रस्फुटित खिलने को आतुर हर्षित गलबैंय्या हुलारते आ लिपटीं पाँव में कोई जड़ें थीं अजनबी अपनत्व देख हुईं अचम्भित हरीतिमा कोढ़ भरी थी खिली तन को थी बींध रही नुकीली हुलर-हुलर बढ़ रही नागफनी कुरूप देहयष्टि छलनी करती सहमी कोंपलें खिलने से […]