ग़ज़ल—रक़ीबों की चाह
Saturday, August 23rd, 2014मग़रिब से आती हवाओं के रुख़ से ज़िंदगी-ए-आम डगमगाने लगी है | हाक़िम ख़ुद क़ज़ा की दवा देते हैं सुन कफ़स में कैद रूहें फडफडाने लगी हैं | आँधियों को गुलिस्ताँ में पनाह देने से सिली-सिली शबनम भी गर्माने लगी है | तंग आ चुके हैं ख़तो-खिताबत से वस्ले यार मेरा सब्र आज़माने लगी है […]