दीदार-ए-यार
Sunday, August 9th, 2009बहते चश्मों को तरसते मृग शावक सागर में समाने को बेताब दरिया जैसे पपीहे को स्वाति बूँद की प्यास ख़ादिम को दीदार-ए-यार की आस… कुंतल लट से लिपट खुश है दिल बँधकर जंजीर में दीवानगी हुई ऍसी तिशनगी बुझा रही हैं निगाहें उनकी दीदार-ए-यार ही अब ख़ुराक बन गई… उन्हें रब मान दिन-रात की इबादत […]