लौ का इंतज़ार
Sunday, November 11th, 2007बढते आते अँधेरे गलबय्यां डाल मेरे अस्तित्व को नकारते मुझ पर छाते चले गए | हमराही कहीं था टटोलने में दिशाभ्रम उसे भी छिटका गया | भयावह कालिमा और यह बाँझ आकाश समाधिस्थ लगता सप्तऋषियों का कारवाँ | अन्तस की लपटों की लौ बुझकर मृतप्रायः हो चीत्कार करने को आतुर खुले होठों में दंतशिलाबन ठिठक […]