हाहाकार
झोपड़िया की टूटी छत से
टप-टप टपकता जल
जीवन भिगोता, कँपकँपाता
इमारतें बनानेवाला तन!
फटे चिथड़ों में लिपटते
रेशमी परिधान बनानेवाले
पिचके पेट, अन्न को तरसते
जग का पेट भरने वाले !
कूड़े के ढेर पर पलते
कूड़ों का ढेर उठाने वाले
घुटने पेट में गाड़,ठिठुरते
नरम कंबल ,रजाई बनानेवाले!
अन्याय का हाहाकार–
अत्याचार, असंतोष की लपटें
करेंगी भस्म !
धुरंधर समाज बनाने वाले !!!!!!
वीणा विज ‘उदित ‘
October 27th, 2009 at 4:10 pm
बहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना
October 27th, 2009 at 6:40 pm
गहरी संवेदनशील रचना!!