सिमटती आकृतियाँ
भविष्य अजन्मा और अनन्त है जबकि अतीत सदा ही उपस्थिती दर्ज़ कराता है , रह-रह कर दस्तक देता रहता है | और जब वर्त्तमान नीरस और निराधार हो तो स्मृतियाँ भी लम्बे सफ़र तय कर सब की नज़रों से बचती-बचातीं अपने बदन का बोझा लाद देती हैं| आज कुछ ऐसे ही बोझ से देवी कराह उठी थी | “हाय!” कह कर अपने कूल्हे की हडडी को दबाते हुए ,उसने बेहद मुश्किल से करवट ली तो देखा मीत गहरी नींद की आगोश में है | मीत के मलीन पडे चेहरे को नाईट-बल्ब की रोशनी में निहारते हुए ,वहाँ उम्र के दरीचों की छाप देखने लगी | मीत उसकी परछाईं बन कर रह गयी थी | वक़्त ने कभी वक़्त ही नहीं दिया उसे कि उसका अपना जीवन सँवरता, और ये मीत, उसके पीछे छिपी अपना अस्तित्व गवाँ बैठी थी | यह तो कच्ची मिट्टी की ईँट थी, जिसने आँवा के सेँक को कभी तन पर सहा ही नहीं था | दोनों की आकृतियाँँ एक-दूसरे में सिमटकर रह गईं थीं | धीमी रोशनी में उसने सामने दीवार पर लगी घडी को देखा, जो दो बजा रही थी कि अचानक घडी की सुई पीछे दौडने लग गईं | जहाँ—
दूउउउर, गहराती आती एक आकृति..माँ के हाथों में एक नन्ही सी जान, जिसे उसकी गोद में डालते हुए माँ ने कहा था,”यह ले अपनी गुडिया | अब तूने ही इसे देखना है, इसका ख़्याल रखना है | इसे कभी अकेली ना छोडना |” (कहाँ छोडा उसे अकेली, ता उम्र उसे साथ ही तो रखा था भाग्य ने ) तब वह सात वर्ष की हो रही थी | उसके सारे खिलौने छूट गए थे , और उसे सिर्फ़ यही सजीव हँसती-रोती गुडिया भाती थी | देवी का बस चलता तो वह स्कूल जाना भी छोड देती |खैर, स्कूल से लौटते ही वह अपनी नन्ही गुडिया के सारे काम करवाती, जिससे माँ भी खूब खुश रहती थी |कुदरत का खेल है न कि आज भी उसके जीवन में ले दे कर सिर्फ़ मीत ही तो बच गई है | तब देवी, मीत को देखती थी | अब मीत , देवी को देखती-भालती है | देवी सत्तर के ऊपर निकल गई है , तो मीत भी सत्तर पहुँचने को है | इतना सोच कर वह अपनी सोच पर स्वयं ही मुस्कुरा दी |
“ज़िंदगी की इबारत अक्षर-अक्षर बनती, फिर टूटती, फिर बिखरती है और फिर बदलती है |”-ठीक ही कहा है किसी सयाने ने | दोनो बेटियों की खिलखिलाहट से घर की दीवारें भी रंगीली लगतीं, घर -आँगन फुलवारी सा महकता था | माँ- बाबू फूले नहीं समाते थे | रसोई की गोल मेज के चारों ओर चार कुर्सियाँ, मेज पर बीच में सब्ज़ी से भरा हुआ डोंगा या कढाई और बगल में बेंत की छाबी में पोने(कपडे) में लिपटी रोटियाँ | हर रात चारों छाबी से रोटियाँ निकाल-निकाल कर उसी एक बर्तन से सब्ज़ी ले-लेकर खाना खाते थे | उस घर में किसी पाँचवें की जगह ही नहीं थी | (वो बात अलग है कि उस घर में सारी उम्र कोई पाँचवां ठहर ही नहीं पाया |) छोटी सी काँँम्पेक्ट फैमिली ! चारों में से किसी एक के मुँह से उफ़्फ़! या हाय! निकलती तो बाकि के तीन उसके सराहने आ बैठते और उसकी सेवा में जुट जाते थे | एक -दूसरे की दवाईयों के नाम और कब किसने क्या लेना है –सबको याद रहते थे |
आँफिस से लौटने के बाद बाबूजी अधिकतर घर पर ही रहते थे | सप्ताह में एकाध बार उनके दोस्त बतरा साहेब आ जाते थे या फिर ये ही उनके यहाँ चले जाते थे |माँ भी गेट पर खडी-खडी सब पडौसियों से बतियातीं रहतीं थीं | खास मौकों पर ही बाहर जाना होता था सबका | मामू की शादी में भी दोनों बहनें एक-दूसरी की उंगली थामें रहीं | मीत ५-६ वर्ष की थी तब | मीत को लाड-प्यार करने कोई भी रिश्ते नातेदार आता तो देवी उसे छूने भी नहीं देती थी | सभी देवी को समझाते पर उस पर कोई असर नहीं होता था |मीत पर उसी का एकाधिकार था बस | उधर मीत की सारी दुनिया भी दीदी के इर्द-गिर्द ही समाई थी |माँ कहती ,” आजा मीती स्कूल का काम करवा दूँ|” उत्तर मिलता,”रहने दो अम्मा! तुम अपना काम करो , दीदी आ कर मेरा काम करवा देगी |” माँ खिलती हँसी हँस देती थी |
देवी काँलेज गई तब भी आखिरी पीरियड होते ही वसुन्धरा को साथ ले घर की ओर लपकती थी | बाकि सहेलियों की तरह हाथ में किताबें पकडे वहीं खडी हो कर गप्पें नहीं मारती रहती थी | वसुन्धरा और देविका अच्छी सहेलियाँ थीं | इनके घर भी थोडी दूरी पर ही थे | हम उम्र सहेली का साथ देवी में प्रफुल्लता का संचार करता था |ऐसा एहसास फिर कभी नहीं हुआ उसे सारी उम्र | दोनो एक-दूसरे से मिलने को बेताब रहतीं थीं हर दिन,और मीत भी साथ में | मीत का बचपन और जवानी, सारे अनुभव दीदी से ही तो थे | दीदी काया और वो उसका साया ! वसुन्धरा के रिश्ते की बातें क्या शुरु हुईं, देवी को भी गुदगुदी होने लगी | ढेरों गुपचुप बातें और ढेरों अफ़साने कहे-सुने जाने लगे | जीवन में रस का प्रादुर्भाव हो रहा था | आज उसे आत्मग्लानि हो रही है कि मीत इन रसों का कभी ज़ायका तक नहीं समझ पाई केवल उस के कारण| सो, बी ए फाईनल के पेपर्स होते ही वसु का ब्याह हो गया | देवी पर मानो वज्र टूट पडा था| अब घर में उसका मन नहीं लगत था | वह मीत को साथ लेकर बार-बार उसके घर जाती, और उसकी माँ का एक ही उत्तर उसे कचोट जाता था | “बिटिया अब कहाँ आएगी वसु इतनी जल्दी ? अब वो अपने घर गई | जब आना होगा, तुम्हे बता देंगे |” भीगी आँखें और द्रवित हृदय वो लौट आती थी| आज भी उस निश्छल प्रेम की स्मृति उसे भिगो गई थी | जीवन-पर्यन्त पुनः ऐसी दस्तक उसके मन के द्वार पर नहीं पडी, हालांकि उसने तो कुन्डी भी नहीं लगाई थी |
उसकी भी बी ए हो गई थी,ह्सरतें भी जाग गईं थीं | लेकिन पितृ-सत्ता का रुवाब—एम ए नहीं करना | लडकियाँ अधिक पढी हों तो शादी के लिए मुश्किल हो जाती है |
” बाबू! कोई ट्रेनिंग कर लेती हूँ ?”
“नहीं, हमने कोई नौकरी करवानी है बेटी से ?
इस पर माँ कहतीं,” अरे, हमारा अपना मकान है| हमारे कौन बेटा बैठा है? सब कुछ इन दोनों का ही तो है | हमें रिश्तों की क्या कमी है ? ढेरों रिश्ते आएंगे, आप देखना तो सही | ज़रा सब्र रखो |”
और बात वहीं रुक जाती ( उँँह् !आज तक रुकी है )
कुछ रिश्तेदारों ने रिश्ते बताए( रिश्ते आए नहीं ),बतरा अंकल ने भी एक-दो रिश्ते बताए | अलबत्ता, अपने आप चलकर तो कोई रिश्ता भी नहीं आया था | माँ ने एक शर्त्त और रख दी थी —लडके की माँ नहीं होनी चाहिए,और लोकल ब्याहनी हैंं बेटियाँ | रिश्तेदार और दोस्त, अब सभी चुप्पी साध गए | इधर मीत का कद देवी से भी दो इंच ऊपर हो गया था | दोनों बेल सी बढ गईं थीं | माँ लोहे की पेटी में हर समय जाने क्या-क्या दहेज के लिए सामान इकट्ठा करती रहती थीं| कोई रिश्ता अख़बार से भी उनकी नाक तले नहीं बैठता था | नैराश्य का अंधकार घर कर जाता था इन बहनों के भीतर, जब भी वे शादी के बैंड की आवाज़ सुनती थीं | आखीर हर उम्र की अपनी दरक़ार होती है | क़ाश! माँ-बाबू भी समझते|
सारी ज़िंदगी के ग़िले ख्ँखालती, उन्हीं में उलझी देवी कभी इस करवट तो कभी उस करवट रात को लांघ गई| विहान वेला में जाकर उसकी आँख लग गई |
वैसे तो हर सुबह दोनो बहनें सो कर उठतीं, चाय पी कर घर के काम-काज में व्यस्त हो जातीं | लेकिन आज मीत उठी तो देखा दीदी अभी गहरी नींद मे ही है | सोचा, रात को जोडों के दर्द से परेशान नींद नहीं आई होगी, खाँस भी रही थीं तभी नहीं उठीं |अपने आप ही उठे, सोने दो –यह सोच कर उसने ग़ौर से दीदी का चेहरा देखा| उस की आँखों को गहरे काले गडढों में धँसी देख और उसके चेहरे पर उम्र के ऊँचे-नीचे रास्तों को तय करती झुर्रियों को देख आज वह भी स्मृतियों की देहरी पर जा बैठी | माँ शुगर के कारण बीमार रहने लग गई थी | वह काँलेज जाती थी , तो दीदी बढती उम्र की परछाँँइयाँ ढोए पूरी गृहणी बन के घर और माँ दोनों को सँभालती थी | माँ की बीमारी का सुनकर नानी पंजाब से माँ को देखने आ गयीं | घर में पाँचवां इंसान आ जाने से सबके हाथ-पाँव फूलने लगे थे| दीदी ने नानी को बताया, “आपका यह पीला तौलिया है और गुलाबी लक्स साबुन है|” दोपहर को दीदी नानी की पेशी ले रही थी,”आपने सफेद लक्स से क्यों नहाया ?आपको दूसरा साबुन दिया था न!”
इस पर नानी बोलीं,”मैंने ध्यान से देखा नहीं, पर मैंने गुलाबी से ही नहाया था |”
अब दीदी ने दोनो साबुन उठाए और नानी को दिखाकर बोलीं,”यह देखो गुलाबी सूखा पडा है और सफेद पर झाग जमी है |”
यह सारा तमाशा देख कर नानी रुआँसी हो कर माँ से बोलीं, “तेरी इस बेटी ने पराए घर जाना है, इसके रंग-ढंग तो देख ज़रा| क्या शिक्षा दी है तूँने? इसका कहीं निबाह नहीं होने का| तूँ देख लेना-”
शायद नानी की जिव्हा पर उस पल माँ सरस्वती विराजी थी, और हुआ भी यही दीदी के जीवन में |
दूर के रिश्ते के माँ के कोई भाई विलायत से भारत आए तो एक दिन उन्हें मिलने आ पहुँचे| घर में दो-दो जवान बेटियाँ देखीं | माँ की शर्तें सुन कर कुछ दिनों में उन्होंने एक रिश्ता बताया| लडका- हरीश! गोरा-चिट्टा, लम्बा-ऊंचा था|माँ-बाप नहीं थे ,अपनी बुआ के पास रहता था| वे बोले कि शादी के बाद अलग रहेगा| दीदी साँवली थी, लेकिन हरीश को सब जँच गया| कुछ न पूछो, घर का माहौल अचानक ही रंगीन हो गया |
सब की बाँछें खिल गईं थीं| नानके-दादके , दोस्त, रिश्तेदार दूर-दूर से आ पहुँचे थे | एक महीने के भीतर धूम-धाम से शादी सम्पन्न भी हो गई | माँ ने पेटी से दहेज का सामान निकाल कर अपने अरमान पूरे किए| किसी ने दबी आवाज़ में कहा भी था कि सुना है हरीश से किसी ने बात कर के भी नहीं देखा| अजीब तरह से बोलता है,जैसे हिला हुआ हो | इस बात पर किसी ने कान नहीं धरा| तब तो बात दब गई, पर वह ठीक नहीं हुआ था|
तब निर्विघ्न सब सम्पन्न हो गया था| पहले फेरे में माँ ने बहुत उपहार दिए, तब भी ठीक रहा | अगली बार दीदी रोती-बिसूरती रिक्शे में अकेली बैठी आई | रोती हुई बोली, ” बारिश आई तो दहेज का सारा सामान फ्रिज,अल्मारी वगैरह बारिश में भीगते रहे , बुआ ने भीतर नहीं रखने दिया कुछ भी | बोली उसके घर में जगह नहीं है,अपना घर लो और सामान ले जा कर वहीं रखो | यह सब सुन कर माँ-बाबू के होश उड गए, घर में अशान्ति और चिन्ताओंं ने उस दिन से पैर पसारने आरम्भ कर दिए थे| खैर, हरीश को बुलाया| उसने तो रहते-सहते होश भी उडा दिए यह बता कर कि यह उसकी बुआ नहीं है, केवल शादी करवाने के लिए उसने बुआ बनना मंज़ूर किया था| मीत उन यादों से भी घबरा उठी थी कि वो कितने बेचारगी के दिन थे ! खुशियों ने घर की दहलीज़ पर कदम रखे ही थे कि दहलीज़ ही नीचे ध्ँस गई थी | वहाँ खुशियों का नामो-निशां ही नहीं था|
बाबूजी ने कुछ ही दिनों में अपने घर से कुछ दूरी पर एक किराए का घर दीदी-जीजा जी को ले कर दिया और उनकी गृहस्थी बसाई| सुबह जीजू के जाने के बाद दीदी रिक्शा में आती, खुद खाना खा जाती और टिफिन भर के साथ ले जाती थी| शनिवार को यहीं आ जाते थे, इतवार को घर जा कर न जाने क्यों मार्-पीट, लडाई-झगडा करते थे क्योंकि एक इतवार को चाचा के बेटा- बहू बाहर से आए तो उनसे मिलने पहुँचे| वहाँ पहुँचने पर देखा कि देवी ज़ोर-ज़ोर से रो रही है| हरीश उसे पीट रहा था| यह दृश्य देख कर मोहन भैया गुस्से से तमतमा उठे और दीदी को कार में बैठा कर उसी वक़्त घर ले आए| उसी दिन से वो शादी चरमरा गई और दीदी दोबारा हरीश के पास फिर कभी नहीं गई| “वूमन-सैल” में कई साल केस चलता रहा जिससे हरीश से छुटकारा मिल गया था और दहेज का सामान ऊपर के कमरे में सजा दिया गया था| किन्तु चिंताओं के कारण माँ को अब और नई व्याधियों ने घेर लिया था|
अकेली चाय पीते-पीते मीत दूर तक अतीत के रास्तों को बुहार आई थी| चाय पीकर उठी, उसने बाहर का गेट खोला| दिन काफ़ी चढ आया था, कामवाली बाई आती होगी सोचकर उसने दीदी को उठाया,” दीदी, उठो! तुम्हारी खिडकी पर देखो तो सूरज बैठा है कब से| कैसी हो, क्या दर्द बहुत है आज? चाय पी लो फिर दवाई देती हूँ|” दीदी को चाय देकर उसने जोडों के दर्द की दवाई स्वयं भी ली और अख़बार पढने बैठी तो मन बार-बार पीछे लौट रहा था| सामने उस दिन का अख़बार और वो वर्षों पीछे थी| माँ शारीरिक व मानसिक दोनों रूप से रुग्ण हो चुकी थीं| हाय हाय! करती पुनः दीदी के लिए रिश्ता ढूँढने के लिए बाबू के पीछे हाथ धोकर पड गईं थीं| अख़बार के ज़रिए खोज प्रारम्भ हो गई थी | मीत की ग्रेजुएशन भी हो गई थी कब से| उसके लिए बतरा अंकल एक बहुत अच्छा रिश्ता लाए–लेकिन मीत की किस्मत! माँ-बाबू दोनो ने यह कह कर उस पर कान नहीं धरा कि जब तक बडी बिटिया का ब्याह नहीं होगा, वो छोटी के लिए सोच भी नहीं सकते| छोटी के तो दिन हैं , अभी बहुत रिश्ते आएंगे |वो बात और है कि फिर कभी ऐसा हो ही नहीं सका| हमारे समाज में एक लडकी को औरत बनाने की प्रक्रिया में रास्ते और मोड पहले से तय कर लिए जाते हैं| और मातृ-सत्ता या पितृ-सता के अधीन वह खुली हवा में श्वास लेने को भी अधीनस्थ हो जाती है| तात्कालिक समाज ही उसे बाध्य करता है उसी अनुरूप जीने के लिए| उसे उसके आसमां में उडने नहीं दिया जाता, उसके पर काट लिए जाते हैं| उसका अस्तित्व घर में सिमट कर रह जाता है | मीत का अंतर्मन भी जवाँ रंगीनियों का एहसास करना चाहता था, पर उसे कुंडे लगा कर उसे बंद रखना पडता था| माँ-बाबू की हाँ में हाँ मिलाकर घुट जाती थी वो | इस सब से उबरकर वह खुली हवा में साँस लेना चाहती थी| एक नया धरातल एक नया आसमान छूना चाहती थी, लेकिन– विडम्बना यह थी कि वो नगण्य रह गई थी| उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था| एक ही सोच थी अब दीदी की दूसरी शादी| बस!
घर के काम अकेली निपटाती मीत की सोच आज पंख लगाकर पीछे उडान भरे जा रही थी| उसका दिमाग ऐसे अतीत की पगडंडियाँ नाप रहा था ,जिसे कभी मंज़िल का छोर मिला ही नहीं| हाँ, दीदी के लिए एक विधुर जो देखने में सुंदर, स्मार्ट और कुवाँरे जैसा लगता था, उसका रिश्ता मिल गया था| दीदी एक बार फिर दुल्हन बनी और विदा हो गयी| दीदी और दीपक जीजू हनीमून पर भी गए| वापिस आकर दोनो बेहद प्रसन्न और संतुष्ट दिखे तो माँ-बाबू ने खूब फलने-फूलने की आशीषें दीं | नामालूम, ये आशीषें भी कभी-कभी क्यूं कुछ काम नहीं कर पाती हैं! अभी कुछेक दिन ही बीते थे कि अचानक एक दिन दीदी इतनी दूर से आँटो में बैठी अकेली आ पहुँची| उसने आते ही अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर लिया | जब तक कोई कुछ पूछता वो माँ के गले लग कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी| बाबू अब रिटायर हो गए थे,सो घर पर ही थे| इससे पहले कि वो मुँह खोलते, दीदी ने बोलना शुरु कर दिया कि एक दिन आधी रात को वो नींद से अचानक उठी तो देखा दीपक साथ में नहीं थे| कुछ देर इंतज़ार के बाद वो सीढियाँ चढ कर ऊपर गई, तो देखा कि वो भाभी के साथ लिपटे सोए थे| भैया शहर से बाहर थे उस दिन| उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई, वो चुपचाप वापिस अपने कमरे में आकर इंतज़ार करने लगी| एक-एक पल काटना असह्य हो रहा था उसे, काफ़ी देर बाद दीपक दबे पाँव लौटा| उसे यूं बैठा देखकर अचकचा गया| उसने हिम्मत रखी और साफ-साफ कह दिया कि अब वो उसके साथ नहीं रहेगी और भैया को सब बता देगी| दीपक बेहद खबरा गया, उसने उससे बार-बार माफ़ी माँगी और ढेरॉं कसमें खाईं कि भविष्य में ऐसा कभी भी नहीं होगा| दीदी बोली, “मैंने सब्र से काम लिया,सिर्फ़ आपको सदमा न लगे इस कारण| आप सब को बताया भी नहीं| लेकिन, कल रात फिर—फिर वही! मुझे नहीं मालूम था कि भैया बाहर गए हैं| मैं भला कैसे चौकसी कर सकती हूँ अपने पति की हर रात? मैं अब कभी भी उसके साथ नहीं रह सकती| मुझे घिन्न आती है|” रो-रोकर वो अपने को कोसने और बाल नोचने लग गई थी| तब मैंने और माँ ने उसे पकडा था| उफ्फ ! सब के चेहरों पर हवाइयाँ उड रहीं थीं और कमरे में भीगा सा सन्नाटा पसर गया था| कि वो जोर से विफ़री—
“यह बार-बार का ठगा जाना अब और नहीं सह्य हो पा रहा माँ! मैं कौन-कौन से राज़ पर पर्दा डालूँ? कितना सब्र करूं? एक मेरे बदन को नचोटता- खसोटता था, दिन-रात उसे कुतरता था –इस पर भी उससे कुछ नहीं होता था, तो वो अपनी ‘नपुँसकता ‘के झंडे मुझे पीट-पीट कर गाडता था| मेरे साथ वहशियाना तरीकों से पेश आता था| मैंने उफ्फ तक नहीं की| अपनी तक़दीर का लेखा मानकर चुप रही | शायद सारी उम्र ऐसे ही निकल जाती यदि मोहन भैया न देखते और मुझे वापिस न ले आते ! उन्होंने मेरा वह नर्क काटा| फिर यह दूसरा—ये मुझे खा-पीकर तृप्त हो डकारता है, फिर दूसरों की थाली पर हाथ साफ़ करता है | मुझे छोड कर ऊपर जा माल-पुए खाता है | ना मालूम कब से इतनी मिठाई खाने की आदत है इसे? ये सब मेरे साथ ही क्योंं हो रहा है माँ? क्यों जनी तूंने बेटियाँ–? पैदा करते ही मार डालती तो आज हम सब इस दारुण दुःख से ना घिरे होते ! ” अपनी छाती पर दोहत्थड मार कर वह पलंग़ पर गिर पडी थी|
बाबू गुम-सुम और मैं व माँ भी ज़ार-ज़ार रो रहे थे| आज भी वह मंज़र याद आते ही मीत के रोंगटे खडॅ हो गए थे| उस वक्त उसे दुनिया के सारे मर्द किसी न किसी कमज़ोरी के शिकार लगने लग गए थे| दीदी के कटु-अनुभव उसे ज़िंदगी से दो-चार करा रहे थे| शादी के पीछे छिपे गहन अर्थ और वास्तविक यथार्थ की पोल-पट्टी खुलने से उसकी कुवाँरी देह काँप उठी थी| पुरुषों के प्रति उसका मन वितृष्णा से भर उठा था| जवान होने पर जो सपने उसकी आँखों की नींद उडाए थे,अकस्मात छूमन्तर हो गए थे| उसकी विस्तृत आकाश में उडने की ललक बुझ गई थी| ज्यूँही भारी हृदय से आगे बढ्कर उसने दीदी को उठाया तो उसकी आँखों से आँखें मिलाते ही उनकी सच्चाई मीत के भीतर उतर उसके मन को अन्दोलित कर गई थी| दीदी की विवश साँसें हवाओं में कराहट भर रही थीं| लडकी से स्त्री बनते ही कँटों भरी सेज —उफ़्फ़! दीदी ने वह सब कैसे सहा होगा, यह सोचकर वह आज भी स्मृति में काँप-काँप जाती है| नतमस्तक हूँ दीदी आपके समक्ष!!
तभी मीत ने यह भीष्म-प्रतिग़्या ले ली थी कि वह कभी भी ब्याह नहीं करेगी| वैसे वक्त ने भी कभी उसे वक़्त ही नहीं दिया…शायद! दीपक कई बार आया लेकिन उसके अक्षम्य अपराध के लिए कभी भी इनके घर के दरवाजे नहीं खुले, न ही सफाई सुनी गई| लोग क्या कहेंगे -इससे परे सोच थी माँ-बाबू जी की| पुनः “वूमन-सैल” में केस रजिस्टर करवाते ही, माँँ को बेटी के ग़म से दिल का दौरा ले गया| दीदी ने स्वय्ं को दोषी मान एकांतवास ले लिया था| बोझिल साँसों की साँय-साँय से भरा घर, बाबू की बूढी उमर की खाँसी से और बोझिल हो उठ था| घर को चलायमान रखा हुआ था केवल मीत ने, वो भी हालातों के मोड लेते ही अपने रास्तों से पिछड गई थी| विड्म्बना तो यह थी कि किसी को अपनी खबर नहीं थी तो भला उसके विषय में कौन सोचता !
वक़्त,था कि दिन,महीने, साल लाँघकर आगे निकलता जा रहा था| इस बार वुमैन्-सैल ने ढेरों चक्कर लगवाए थे| पाँच सालों में जाकर कहीं इनके ह्क़ में फैंसला हुआ था| हिस्से में आया था वही दहेज का सामान…जो पुनः ऊपर का कमरा भरने आ गया था; मानो उसे यहीं वापिस आकर चैन मिलता था| हद तो तब हो गई; जब बाबू बुआ की बेटी को घर आई देखकर बोल उठे,” इनकी माँ आज होती तो देविका के लिए फिर से रिश्ता ढूँढती| मेरी हिम्मत अब जवाब दे गई है बेटा|” हालांकि मीत ने पहले ही अपना मन कभी भी शादी न करने का बना लिया था ,पर फिर भी कभी दीदी ही प्रतिरोध करती,या बाबू से , मीत के लिए कहती ! ताउम्र मीत को यह ख़्याल सालता रहा लेकिन…गया वक़्त लौटकर कब आता है?
जब चिन्ताएँ मनोः मस्तिष्क के साथ-साथ बदन को अपना आशियाना बना लेती हैं, तो ढेरों व्याधियाँ भी अपना हक़ जमाने आ धमकती हैं| बाबू इतने रुग्ण,वृद्ध व जीर्ण-क्षीण हो चुके थे कि सोए हुए बच्चा लगते थे| उनकी दवाओं के साथ अब दोनो बहनों की भी ढेर दवाएँ घर में आसन जमा चुकी थीं| एक रात खाँसी काल बनकर आई और दोनो बहनों को अनाथ कर गई| दोनो एक-दूसरे के कँधे पर सिर रखकर रो लेतीं और कँधे पकडकर तसल्ली भी देतीं| सिली-सिली ख़ामोशी की चादर ओढ ली थी घर ने|
वक़्त अपनी रफ़्तार से दौड रहा था, लेकिन इनका वक़्त ठहर सा गया था| दो आकृतियाँ इस निर्जन निवास के भीतर सिमट कर रह गईं थीं| वहीं वक़्त सिमटता जा रहा था काले स्याह से धवल सफेद होते उनके बालों में| कब ये बुढापे की सीढियाँ चढने लगी थीं , इसका उन्हें आभास ही नहीं हुआ था| दमा-खाँसी, बी-पी, जोडों के दर्द और भी ढेर सारे दर्द उनके हर पल के साथी बन चुके थे| फिर, जब पैसा गुल्लक के भीतर से मुँह चिढाए और अपने भीतर छिपे अँधेरे दिखाए तो इन सब से छुटकारा कैसे हो? यही विपदा भारी थी| (उसने लम्बी उच्छवास ली)और अपने ख़्यालों की ज़मीं से वापिस लौटी|
उसने जाकर कमरे में देखा, दीदी दोबारा सो रही थी| हाथ माथे पर रखा तो माथा तप रहा था| किसी बुरी आशंका से उसने पुकारा,दीदी! लेकिन वह बेहोश थी| मीत डर गई| उसने दीदी के दोनों कँधे पकडकर झकझोरा तो उसके मुँह से अस्फुट स्वर निकले,”जा मीत,ऊपर कमरे में जाले ही..जा.ले..;म क.डी–मक..डीयाँ,स.फा.ईइई |”असल में दीदी के दहेज का सामान वापिस आने पर उसे ऊपर सजा कर रख दिया गया था| कुछ साल तक दोनो बहनें वहीं ऊपर जाकर सोतीं थीं; अब उम्र के चलते घुटनों के दर्द के कारण ऊपर जाने में असमर्थ थीं| दीदी भी शायद अतीत की ड्योडी पर पहुँची हुई थी| मीत ने डाँँक्टर बुलाया, उसने दिमागी नसों को संयत करने के लिए देविका को नींद का इंजैक्शन व दवाई दी| उम्र के इस पडाव पर इन्हें परिवार की कमी बहुत खलती थी, घर में और कोई मदद नहीं थी| देविका और मीत घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गईं थीं| रिश्तेदार तो कोई बचे नहीं थे न ही उनकी अगली पीढी से इनका कोई आना-जाना था| हाँ, मीत ने बुआ की दोहती को बुला लिया|”दो बुढियों का घर” कह कर आस-पडौस उनकी बातें करते थे| मीत भीतर ही भीतर घबराए जा रही थी|
आधी रात के सन्नाटे को चीरती दीदी चीखी,” छिपकली, पर्दे पर छिपकलियाँ भगाओ |”फिर उठ कर भागने लगी|”मीत, मेरे बिस्तर पर चींटियाँ मुझे काटी जा रही हैं , देख न !मुझे बचा ले|”मीत ने दीदी को पकडा, प्यार किया|आँसू आँखों के बाँध तोडकर बह रहे थे| दीदी सारा बदन खुजा रही थी, और मीत उसे सहला रही थी| दीदी धूप थी तो मीत उसकी परछाँई| उनके सूने घर को किसी के भी कदमों की आहट का इंतज़ार नहीं होता था| खाली जीवन, नीरसता, सूखी मुस्कानें और झुर्रियों स्रे भरे चेहरे लिए अपने कटु जीवन को वो एक-दूसरे के स्नेह-स्पर्श से सौहार्दपूर्ण बना लेती थीं|
आज दोनों डाल से टूटे पत्तों की तरह बिखरी पडी थीं| दीदी की साँसें उखडी जा रही थी| देखते ही देखते किसी अदृश्य को आँखों में समोए दीदी शांत हो गई थी सदा के लिए|
ऐसा तूफ़ान भी आ सकता है, यह कभी सोचा नहीं था मीत ने| वह जडवत हो गई थी| उसे लगा जिस कग़ार को वो थामें थी,वह उससे छूट गई है और वह अथाह में डूब रही है| किस्मत में लिखे को मिटाने की कूवत किस में है? नितांत अकेली मीत ने अपने आप को धीरे-धीरे अँधेरे कुएँ में धकेल लिया था| एक दिन माँ का संदूक खोल कर मीत ने सारे ग़हने निकाले| जिन्हें देख और छू कर उसकी भूखी हसरतें मचल उठीं | उसने शीशे के सामने बैठ कर दुल्हन की पोशाक पहनी(जो कभी माँ ने मीत के लिए भी खरीदी थी )|माथे पर सिंदूर की बडी सी लाल बिंदी लगा कर, सारे गहने भी पहने फिर दर्पण के सामने बैठ अपने को निहारते हुए वो गा रही थी, “चली बन के दुल्हन …मोरा मैके में जी घबरावत है|”
अचानक उसे लगा वो बडे से मकडी के जाल में फँस गई है, उसने जोर-जोर से चारों तरफ हाथ मार-मार कर अपने को निकालने की असफल चेष्टाएं कीं| वह और उलझती चली गई| दर्पण उसे मुँह चिढा रहा था,इधर-उधर हाथ मारने से बिंदिया का सिंदूर चेहरे पर फैल गया था| आखिर थक-हार कर वो अवसन्न और निःश्चेष्ट हो गिर गई| * * * * * * *
वीणा विज ‘उदित”
कश्मीर