सदके पे सवाब (लघु-कथा)
जनाब बशीर अहमद साहब के परिवार में सबने रोज़ा रखा था | रमज़ान का पाक़ महीना था | हर सच्चा मुसलमान जो धर्म में आस्था रखता है , वो पूरे महीने भर रोज़े रखता है | बशीर भी वैसे ही थे | सुबह उनकी कार कोठी के गेट से जैसे ही बाहर निकलने लगी, वहाँ दो भिखारी कार के सामने आ भीख माँगने लगे | वे फटेहाल में थे |उन्हें देख नफरत से भर ,बशीर साहब जोर से चौकीदार पर चिल्लाए ,”यह क्या गंदगी फैला रखी है ?भगाओ इनको यहाँ से |” चौकीदार ने गालियाँ देकर उन्हें भगा दिया |
बशीर साहब इज़थमा ( धार्मिक-सभा) में तकरीर (भाषण) करने जा रहे थे| वहाँ वे बोले,” खुजूर सल अल्लाह वालाही वसलम का हुक्म है कि रमज़ान के महीने में सदका करने से सवाब मिलता है | अर्थात गरीब , लाचार , दीनदुःखी , ज़रूरतमंद की मदद करने से पुण्य मिलता है | मैं पाँच हज़ार रुपये सदका(दान) करता हूँ | बहुत तालियाँ बजीं |
अगली सुबह अखबार में उनकी फोटो और यह खबर पढकर उनका चौकीदार ‘सदका’ और ‘शोहरत की भूख ‘पर मुस्कुरा उठा | उसने दोनो हाथ ऊपर उठाकर दुआ की,” या अल्लाह! इनपे रहम कर |
वीणा विज ‘उदित्’