संकल्प सूरज। ( कविता)

संकल्प सूरज

तुम संकल्प-सूरज उगा कर
सिंगार कर रहे लक्ष्य का
दृगों में विश्वास ज्योति भर
कल-कल निनाद करते कर्म का !

हौसलों का नाद सुनाकर
अहम् तोड़ते आपदाओं का,
ज्यूं शोर मचा रस पीता भ्रमर
गुलाबी कण्टकित कुसुम का!

ज्ञान-सूर्य से ज्योति जला कर
दूर कर रहे अंधियारा जंग का
तुम जैसों ने कदम बढ़ा कर
अर्पित किया तन मन अपना!

दर्दीली हवा की सुन चीखों पुकार
बेबस,बेहाल, चोटिल संवेदना
लहूलुहान दिल अपने खोने पर
था लाश बना जीवन इंसान का!

मृत्यु का विकराल रूप लख कर
चकित था ताण्डव महाकाल का
नकली सांसों का व्यापार चला कर
गगनभेदी चीत्कार था कंकाल का !

तुम ही हो जग के रखवाले कर्णधार
मूर्ख थे तुम्हें ना हमने पहचाना
ढूंढते थे मंदिर मस्जिद गिरजाघर
निरूपित ईश था तूं संतप्त मन का!!

वीणा विज’उदित’
11/5/21

फेसबुक पर डाली थी।

 

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