शेष होकर भी अशेष(कहानी)

“शेष होकर भी अशेष”

अतीत के झरोखों में झांकती, मन ही मन स्वयं से बतियाती नींद की आगोश में जा ही रही थी कि फोन की घंटी टन टना उठी…
“हेलो”
“हेलो –हेलो मां! आज फिर से मैं सपने में अपने पुराने वाले घर में रात भर खेलता रहा। वही पुरानी दीवार में बनी चौड़ी अलमारी, जिसके नीचे वाले हिस्से में मैं पतंग और डोर छुपा कर रखता था। क्या गजब का दौड़ता था ना मैं ! जब पतंग कट कर गिरती थी! कभी छत पर तो कभी गली के किसी भी छोर पर पहुंच जाता था और वह कटी हुई डोर बहुमूल्य खजाना होती थी मेरे लिए ! हां अपने दोस्तों के बीच डींग मारने के लिए भी।”
मैं हंस पड़ी और बोली,” वह तो तेरी आदत थी ही।”
“याद है मां? कभी कभार छोटी उंगली या अंगूठा भी डोर लपेटने से कट जाता था मेरा। डोर में मांझा जो खूब लगा होता था। आज भी छोटी उंगली कटी तो, मैं डोर रखकर तुमसे सरसों का तेल लगवाने पहुंचा क्योंकि तुम हर चोट पर सरसों का तेल ही तो लगा देती थी। वैसे अब समझ पाया हूं कि सरसों का तेल सनस्क्रीन की भांति जख्म पर मिट्टी नहीं लगने देता था जिससे चोट स्वयं ही धीरे-धीरे ठीक हो जाती थी और हम उसे ही इलाज समझते थे। हा हा हा…
और तभी मेरी नींद खुल गई। मैं तो यहां पर अपने बिस्तर पर था। हजारों मील दूर अपने देश से ! अब तो देश छोड़ो, घर भी वह नहीं रहा। तुम नए घर में हो, जो सुख सुविधाओं से लैस है। (उसकी इस बात ने मेरे हृदय की परतों को उधेड़ कर रख दिया लेकिन यह उधड़न , जिसमें धागे के टुकड़े शेष रह जाते हैं यह वो कहां देख सकता था?) पर मां, मेरे सपनों में तो वही हमारा पुराना घर ही दस्तक देता रहता है क्योंकि हमने अपने बहुमूल्य बचपन को वहीं तो छोड़कर जवानी की दहलीज पर पैर रखा था।”
“हां बेटा! उसी घर में तो मैं भी ब्याह कर आई थी और अपने सपनों के अनुरूप ही उसे सजाया व तुम दोनों बच्चों को बनाया था मैंने!”
“जल्दी ही दफ्तर के लिए तैयार होना है मां, फिर कभी बात करेंगे। ओ के बाय!” कहकर उसने तो फोन काट दिया। लेकिन मुझे ख्यालों में भटकता छोड़कर! उन ख़्यालो में— जहां नींद पास भी नहीं फटक सकती थी अब।
पुराने जमाने में घर की दीवारों की ईंट की चिनाई मिट्टी और गारे से हो जाती थी। हमारा घर भी उसी जमाने का बना था। बाबूजी कहते थे तब सीमेंट पर रोक थी इसलिए ऐसा बनवाना पड़ा। हमें क्या मालूम हमें तो उसे सजाने -संवारने का चाव ‌लगा रहता था! लेकिन ऊपर की मंजिल पर कभी रिपेयर नहीं करवाई थी तो वह अपना खस्ताहाल जतलाता था।
दो पल्ले वाले दरवाजे और खिड़कियों, अलमारियों के भी दोनों पल्ले होते थे। जब तक दोनों पल्लों में मेल ना बैठे तो दरवाजे कहां बंद होते थे ? जैसे पति-पत्नी की राय ना मिले तो गृहस्थी की गाड़ी कैसे चल सकती है ? आज के युग में एक पल्ला ही काम करता है दूसरे पल्ले की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। गृहस्थी भी कुछ इन्हीं सिद्धांतों पर टिक गई है। तभी तो आजकल कब टूट कर बिखर जाए क्या मालूम? ‌
समय-समय पर घर में छोटी मोटी तोड़फोड़ करवाकर उसे बच्चों की आवश्यकताओं के अनुरूप ठीक करवा लिया करते थे हम। आय के साधन भी सीमित होते थे। शांतिपूर्वक सुखी जीवन जी रहे थे। घर के किस कमरे में कौन से रंग का डिस्टेंपर करवाना है यह तय करते हम कितने उत्साहित हो जाते थे क्योंकि पर्दों का चयन भी तो फिर उसके अनुरूप होता था। पर्दों का कपड़ा खरीद कर लाते थे तो उन्हें बनाने के लिए कोई टेलर ना ढूंढ कर घर में सीने की सलाह बन जाती थी। इंची टेप से दरवाजे की ऊंचाई माप कर गिरीश और मैंने पर्दे काटे थे फिर मैंने उसमें चुन्नटें डालीं ; जिन्हें बाद में सुई धागे से बांधा था। पर्दे सिल जाने पर हम दोनों का उत्साह देखने वाला था। उन्हें टांगते हुए गिरी के मुख पर विजयी मुस्कान थी। ड्राइंग रूम के परदे जब लगे तो हमारी निगाहें प्रशंसा से उन्हें निहार कर स्वयं ही गदगद हो गईं थीं। बच्चे भी तो सहभागिता करते थे। कभी कैंची पकड़ाने में ,तो कभी मशीन की फिरकी पर धागा चढ़ाने में ! सब में कितना स्वाभाविक तालमेल बैठ जाता था। घर की सजावट में अपनी सुरुचि दृष्टिगत कर गर्व होता रहता था अनजाने में ही।
घर में रहने वालों की भावनाओं का रंग घर की दीवारों और पदों के रंगों में झलकता है तभी वह मकान घर कहलाता है और उसमें बसने वालों की सुरुचि और व्यक्तित्व को दर्शाता है। घर के प्राणियों का लगाव और आत्मीयता घर से बंध जाती है। वैसे भी पुराने पैतृक मकानों में भीड़ होती थी जिससे उनमें सजीवता बनी रहती थी ना कि वर्तमान समय में बड़े-बड़े घर भी आवाज के लिए तरसते रहते हैं। कमरे अधिक होते हैं और उन कमरों में रहने वाले परदेस चले जाते हैं । रह जाते हैं मां और पिता बुढ़ापे में अपनी नैया खेते। अपने “छज्जू के चौबारे” को संभालते!
ना जाने कहां से इतनी शक्ति आ जाती थी कि मैं हफ्ते के बाद गमले बदल लेती थी। एरोकेरिया के पौधे भीतर ड्राइंग रूम में लहराते बेहद सुंदर भी लगते थे और मैं दोनों हाथों से उठाकर बारी-बारी गमले बदलती रहती थी। घर की सज्जा में मशगूल हो जाती थी। कोई सुध नहीं रहती थी। जब कोई मेहमान तारीफ करता तो मेरा चेहरा दमक उठता था। शायद यही उत्साह ताकत देता था मुझे । बाजुओं में दम आ जाता था। मेरी सहेली रत्ना ने जब कहा था कि उसे मेरा घर सबसे अनूठा और बहुत ही सुंदर लगता है , तो मैं फूली नहीं समाई थी। असल में पैतृक घर बाहर से तो पुराना ही लग रहा था उसको बदलने के लिए बैंक बैलेंस खूब चाहिए था। वहां तक मेरी पहुंच नहीं थी। यह बड़ी बातें थीं। अभी तो बच्चों की पढ़ाई सामने दिख रही थी। कभी लगता था घर भी पुकार कर कह रहा है कि मेरे खस्ताहाल पर भी तरस खाओ।
इस विचार के आते ही मैंने गुलाब के फूलों की बेल घर पर चढ़ा दी कि अब घर खिल उठेगा। सच में मेरा घर सुंदर दिखने लग गया था कि किसी माली ने बताया कि इसे उतार दो —कहीं यह घर को गिरा ही ना दें क्योंकि यह बेल दूसरी मंजिल की छत पर पहुंचकर फैल गई थी और उसका भार बहुत ज्यादा हो गया था। घर गिरने के डर से दो-तीन वर्षों के बाद घर के बालों रूपी दीवारों पर सजा यह फूलों का गजरा उतारना पड़ा था मजबूरन उसके भले के लिए।
बच्चों के यूनिवर्सिटी के एडमिशन के लिए पैसे चाहिए थे तो हमारी प्राथमिकता उस और बढ़ गई। जब वे पढ़ाई करके वापिस आ रहे थे तो नई चिंता मन में सताने लगी थी कि अब इनके ब्याह का समय आ रहा है । तो नया घर चाहिए । इनके बेडरूम और साथ लगे बाथरूम भी होने चाहिए। जैसा समय है उसके अनुरूप सब सुख सुविधाओं वाला घर बनाना पड़ेगा और इस मिट्टी-गारे के घर की दीवारों को तोड़ा जाने लगा।
जिसै मैं अपना घर कहती थी , जिसका कोना-कोना मैंने अपनी पसंद से सजाया हुआ था, उससे मैं अपने आप बातें भी करती रहती थी। अपने कमरों से कहती , “यहीं तो हूं मैं ,पुनः तुम्हें अपने रंग में ढाल लूंगी ।”अपने घर पर हथौड़े चलते मैं नहीं देख पाती थी। मुझे बहुत चोट लगती थी— तो हमने एक वर्ष के लिए किराए का घर ले लिया था और वहां बैठ इसके नए रूप की कल्पना से मैं मन को ढांढस देती रहती थी । सारी उम्र की जमा पूंजी घर को नवीन रूप देने पर अब खर्च हो रही थी। बहुत सोच विचार कर घर की दो दीवारों को वहीं खड़ा रहने दिया गया, जिससे नवीनता में पुरातनता को कायम रखा जा सके। कुछ एहसास तो जीवंत रहें पुराने घर के!
जितनी रकम में एक मकान तैयार हो जाता था कभी, उस कीमत में अब एक बाथरूम तैयार हो रहा था। जब “ओखली में सिर दिया ही था तो फिर मुसल से क्या डरना”— तो कई तरह के जुगाड़ लग रहे थे। घर के भीतर ही सोफा सेट का कपड़ा बदलवा कर उसे नया बनाया जा रहा था। मानो एक गांव की गोरी को शहरी दुल्हन सा सजाया जा रहा हो। एक मंजिला घर बन रहा था दुमंजिलें को तोड़कर। जैसे-जैसे वर्ष समाप्त होने को हो रहा था नई आशाएं, नई उम्मीदें जाग रही थीं। वक्त ने तो बीतना ही था तो बीत गया और हमारे समक्ष था हमारा घर एक नवीन रूप धारण किए हुए।
इस बीच बेटे की नौकरी लग गई थी दक्षिण भारत में और बेटी का रिश्ता भी पक्का हो गया था। उम्मीदों और हसरतों को लिए हमने अपने नए घर में पदार्पण किया। लगा, खिले मुख से घर हमारा आभार जता रहा है कि धन्यवाद ! तुमने मेरा जीर्णोद्धार किया वक्त रहते ही। मेरा मन बल्लियों उछल रहा था, घर द्वार देखकर। शिरीष भी छुट्टी लेकर मदद करवाने के लिए घर आ गया था।
लो जी घर की साज-सज्जा दुगने उत्साह से होने लगी। दोनों बच्चे बेहद प्रसन्न हुए सब देख कर। जब कि बेटी शमा का मुंह उतर गया कि वह तो अब इस नए घर में रह नहीं पाएगी ससुराल चली जाएगी। बात तो सच्ची थी लेकिन जरूरी भी था यह सब कुछ। उसका ब्याह इस नए घर से बहुत धूमधाम से हुआ जैसा कि गिरीश चाहते थे। शादी पर मेहमान और रिश्तेदार पहुंचे तो सब ने घर की खुलकर प्रशंसा करी। भरे- पूरे घर में मैं महारानी बनी घूम रही थी, अनजाने भविष्य की चाल से बेखबर।
बेटी तो ससुराल चली गई थी बेटे के आने जय की राह देख रहे थे कि मालूम हुआ उसे वहीं से कंपनी की तरफ से न्यूयार्क भेजा जा रहा है। अब हम इस आस में थे कि वह भारत आएगा तो उसका विवाह किया जाए। उसने कहा कि आप चिंता ना करें विवाह के लिए पैसे वह ले आएगा। पैसे लाने तक तो ठीक था लेकिन वह तो लड़की भी वहीं से ला रहा था यह सुनते ही हम दोनों का माथा ठनका अब क्या होगा? उसके साथ ही काम करती थी गुजराती लड़की “शिप्रा”! एक तसल्ली तो हो गई कि लड़की भारतीय है उसका जन्म व लालन-पालन वहीं हुआ था और सारा परिवार अमेरिका में ही था।
यहां अपने नाते रिश्ते में कुछ लोगों की आंख हमारे बेटे पर थी, यह खबर सुनकर वे सब अब चुप्पी साध गए थे। हमें समझ आ रहा था सब का बदला हुआ व्यवहार! लेकिन शिरीष ने वहां कोर्ट मैरिज कर ली थी। यहां भारत में विवाह की पूरी रस्मे निभाने वे पहुंच रहे थे लड़की के माता-पिता व बहन के साथ। उन्हें होटल में ठहराया गया जबकि शिरीष और शिप्रा घर पर ठहरे थे। घर में नया सामान देखकर लोग अटकलें लगा रहे थे कि दहेज में आया होगा। शिरीष ने कहा,”कहीं आप दहेज की उम्मीद तो नहीं लगा कर बैठे हैं। जितना शिप्रा एक साल में कमाएगी उससे सब कुछ आ जाएगा। इसकी आप चिंता ना करें हमने वहां घर ले लिया है। दोनों मिलकर सजाएंगे।”बात में दम था तो हमें जंच गई।
पंडित जी आए और रीति रिवाज से शादी हुई। हमने बहू के सारे शगन किए। मन में एक भय व्याप्त गया था कि हमारा बेटा पराया हो गया है। पहले हमने बेटी की विदाई की थी; अब हम बेटे की विदाई करने लगे थे। समाज की सोच के साथ ही समाज का रूप बदल जाता है!रीति- रिवाज भी समय के अनुरूप ढल जाते हैं।
शिरीष बार-बार कहता था कि आप दोनों अमेरिका आ जाओ। लेकिन हम हिम्मत नहीं कर पा रहे थे क्योंकि कुछ लोगों से उनका दुखी अनुभव सुन चुके थे। मेरी टांगे और घुटने बहुत दुखते थे जबकि गिरीश भी उम्र के चलते कमजोर हो गए थे और उनकी खांसी ने दमे का रूप ले लिया था।
नई दुल्हन के पहले त्यौहार आए और निकल गए। मैं कुछ भी शगन नहीं कर सकी। वह व्यस्त थे—नहीं आ पाए।
” दिवाली पर अवश्य पहुंचकर इकट्ठे दिवाली मनाएंगे” कहकर भी नहीं पहुंच पाए थे। इंतजार बस इंतजार ही रहा!
आजकल के बच्चे बहुत व्यस्त हैं अपने जीवन में! वह ऐसी मैराथन दौड़ में दौड़ रहे हैं जिसमें सब कुछ छोड़कर दौड़ना होता है और रुक कर सोचना मना है। बस भागते ही रहो। इस दौड़ का अंत किसी भी मुकाम पर पहुंचकर नहीं है। यह तो जीवन पर्यंत दौड़ने की” मैराथन दौड़” है।
गिरीश और मैं फोन के सहारे समय काट कर प्रसन्न हो जाते थे। बेटी शमा भी बिहार के रिमोट इलाके से अब फोन ही करती थी उसके दोनों बच्चे पढ़ रहे थे स्कूल में, वह भी व्यस्त थी। और अपने छज्जू के चौबारे पर हम दोनों उम्र काटने मैं लगे थे। तीन बैडरूम का घर, बच्चों के अनुरूप बनवाया था और अब सजा संवरा , साफ-सुथरा रहता था। कुछ दिनों में चद्दरें बदल देती थी, और दोपहर को सो जाती थी जिससे उन कमरों को भी जीवित सांसों का एहसास हो सके और वह भी जिंदा रह सकें।
गिरीश की छाती और दमे की बीमारी ने अब भयंकर रूप ले लिया था। इलाज चल रहा था पंप भी लेते थे लेकिन जब खांसी छिड़ जाती तो लगता दम ही निकल जाएगा। एक दिन बोले,
“कमरे खाली पड़े हैं तुम दूसरे कमरे में सो जाया करो कम से कम तुम्हें तो चैन की नींद मिले। मेरे कारण तुम्हारी भी नींद खराब होती है।”
गिरीश की बात मान लेने से अब घर के दो बेडरूम सांस लेने लग गए थे। मुझे लगा दीवारें और फर्नीचर हंसकर मुझे वेलकम कर रहे हैं शायद एका न्त से वो भी घबरा गए थे। मुझे आदत है ना दीवारों से बात करने की तो शायद उनकी अपेक्षाएं भी यही हैं। मैं तो अपने पौधों से भी बातें करती रहती हूं। अपने इर्द-गिर्द सभी में प्राणवायु बहती नजर आती है मुझे।
कभी कभार शमा सर्दी की छुट्टियों में बच्चे लेकर जब आती है तो सारा घर चहक उठता है। गर्मियों में तो वे किसी न किसी हिल स्टेशन पर चले जाते हैं। हमें भी साथ बुलाते हैं लेकिन गिरीश की खांसी और अपने घुटनों के कारण हम नहीं जाते हैं। हाल यही है कि अपने देश में होते हुए भी बच्चे परदेसी हो जाते हैं तो परदेस वालों से क्यों अपेक्षाएं रखना? हम दोनों का समय कट रहा है ना छज्जू के चौबारे पर!
शिरीष ने खुशखबरी सुनाई कि आप दादा-दादी बनने वाले हो । मैं टिकटें भेजता हूं आप दोनों आने की तैयारी करो। मैं तो ढेरों सपने सजाने लग गई और शिरीष को बोला की बहू का खूब ध्यान रखना।
वह बोला,” अरे मां उसकी मां है ना यहां, रख रही है उसका ध्यान! आप चिंता मत करो। बस आने की तैयारी करो।”
गिरीश ने तो पक्की जिद पकड़ ली।बोले,” मैं तो नहीं जाऊंगा। तुम चली जाना। उसे बोलो कि एक ही टिकट भेजे।”
“अरे आपको किसके सहारे छोड़ कर जाऊंगी? मेरा भी जाने का सवाल ही नहीं उठता।” लेकिन भीतर ही भीतर मैं रो रही थी अपनी मजबूरी पर और हम दोनों ही आखिर नहीं जा पाए।
अपने कमरे में बैठी अपनी दीवारों से मैं बातें करती रहती हूं भीतर ही भीतर! वही मेरी सहेलियां हैं। सोचने लगती हूं तो वर्तमान से बहुत पीछे रह जाती हूं। वहां से लौटती हूं तो आगे निकल जाती हूं। वर्तमान के केंद्र में विचारधारा भ्रांत होकर घूमती है। समय ने जीवन के रुख बदल दिए हैं। विचारों की गहराई से मैं स्वयं भयभीत हो जाती हूं। गिरीश की खांसने की प्रक्रिया जब रुकती नहीं, तो बेबस उनको धीरे-धीरे सुलगता हुआ देखती हूं । जिसकी आंच केवल मुझ तक ही पहुंच पाती है। लगता है ना जाने कब-? —कब इस आंच ने एक ज्वालामुखी का रूप धारण कर अपने खौलते लावे से सब कुछ राख कर देना है!
मन में झंझावत चलते रहने से दिन आकुलता में कट रहे थे। मन छलनी हो रहा था। हम दोनों पर अवसाद ने घेरा डाल दिया था। गिरीश के लगातार खांसने से दवाइयों का कोई असर दिखाई ना देने पर, उनकी पीठ मलने के बहाने मैं पीछे की ओर हो जाती। जहां बहती आंखों को वे देख ना पाएं। उसके बाद जब उनकी आंख लगती तो मैं दूसरे बाथरूम में जाकर ज़ार- ज़ार रोती। विलाप करती रहती। भरी दुनिया में आंसू पोछने वाला कोई नहीं था। कलेजा टूक -टूक हो रहा था। घुटनों के दर्द ने‌ भी खूब सताया हुआ था।
अक्सर बहुत कुछ ऐसा भी होता है जीवन में जो शेष होकर भी आशेष ही रह जाता है। तब उस अधूरे को पूरा करते-करते ही इंसान जीवन निकाल देता है। काश ! हमने घर बनाने में सारा पैसा ना लगाया होता तो आज घुटने बदलवा सकते थे। बेटे से कहने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पा रही थी। बेगानी लड़की ना जाने क्या समझे –डरती थी मैं! उधर गिरीश सांसों से लड़ाई कर रहे थे कि एक जोर की खांसी और उनका चेहरा मेरे हाथों में! बेबस आंखें मेरी आंखों के भीतर गहरे उतर रही थीं, जिससे मेरी आंखें फैलकर अदृश्य में फटे जा रही थीं और र र र उसके बाद सब शांत!
ऐसा शांत- एकांत जहां हर तनाव से मुक्ति मिल गई हो। तन और मन दोनों ही कुंठा मुक्त हो गए हों। ऊहा-पोह और चिंताओं से भरे उद्विग्न चित्त में इतनी शांति !
बहुत कुछ कहने सुनने को था पर अब बहुत देर हो गई थी। शब्द जमीन में गड़ से गए थे। —पेड़ बन गए थे ! और मेरे बहते आंसू उनकी सूखी जड़ों को सींच रहे थे। मेरी आवाज़ किसी गहरी खड्ड में जख्मी हुई पड़ी थी। मेरे अल्फाजों की लाशें उठाने वाला भी वहां कोई नहीं था।

डा.वीणा विज’उदित’
10 नवंबर 22

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