शहरी जानवर (लघु कथा)
नदी के ऊपर की पहाड़ी पर घास चरते भेड़ -बकरियों के झुँड से अचानक एक बड़े बकरे की टाँगें फिसलने से वो बहुत ऊँचाई से नदी में गिर पड़ा | उसके चरवाहे ने ऊपर से ही देखा कि पार कुछ लोग बैठे हैं | उसे लगा मेरे पहुँचने तक वे ज़रूर उसे बचा लेंगे | मन में आस लिए जब तक शोर मचाता वो गुज्जर बाकि जानवरों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर पहाड़ी के दूसरे रास्ते से उतर कर उसे लेने वहाँ पहुँचता, तब तक नदी पार रहते कुछ लोग जो सामने ही बैठे थे ,लगा वे बकरे को बचाने दौड़े | खूब शोर मचाते हुए छैः लोगों ने इकट्टे होकर नदी किनारे पड़ी , किसी पेड़ की बड़ी सी डगाल से उसे किसी तरह बाहर निकाला (क्योंकि पहाडी नदी बहुत तेज बहती है)| उसकी दवा-दारू करने के बदले , “अल्ला हो अक़बर -बिसमिल्ला-ए रहमान “–तक़बीर पढकर साथ लाए बड़े चाकू से उसे हलाल कर दिया | लड़-झगड़ कर सब ने छोटे -बड़े कई टुकड़े करके आपस में बाँट लिए और घरों को चले गए | मुफ़्त का माल मिलने से सभी की बाँझें खिली जा रही थीं |
जब गुज्जर पहुँचा तो चोटों वाले बकरे की जगह उस की बची-खुची निचली टाँगें कुछ कुत्ते खा रहे थे | अपने प्यारे बकरे की दुर्दशा देख कर– या अल्लाह !! कह कर वह जोर से रो पड़ा और घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा | वह समझ गया कि उसके बकरे की रक्षा करने के बदले स्वार्थी और लोलुप शहरी जानवर उसे खा गए थे |