वो लम्हे
वो लम्हे
ज़िंदगी से लम्हे चुरा
लॉकर में सहेजती रही
फुर्सत से खर्चूंगी
बस यही सोचती रही।
उधड़ती रही जेब की सीन
करती रही तुरपाई
फिसलती रहीं खुशियां
करती रही भरपाई।
इक दिन फुर्सत जो पाई
सोचा —
स्वयं को आज रिझाऊं
बरसों से जो सहज रखे
वह लम्हे खर्च कर आऊं—
खोला लॉकर —लम्हे न थे
जाने कहां रीत गए —?
मैंने तो खर्चे नहीं
जाने कैसे बीत गए —?
अब जाकर फुर्सत मिली थी
सोचा, खुद से ही मिल आऊं !
आईने में देखा जो
पहचान ही ना पाऊं
ध्यान से देखा वालों पे
चांदी से चढ़ी थी
लगती थी कुछ मुझ जैसी
जाने कौन खड़ी थी??
वीणा विज’उदित‘