विश्वास की जीत। (लघु कथा )
मेरे घुटने की दर्द से बेहाल हम और्थोपीडिक डाक्टर के कक्ष में जैसे ही दाखिल हुए तो देखते क्या हैं कि डाक्टर अपनी जेब से एक मरीज को साढे़ सात सौ रुपये दे रहा है। हम दोनों उनके सामने रखी दो कुर्सियों पर चुप चाप बैठ गए । थोडी़ देर मेंं ही हमें मामला समझ आ गया । वह मरीज कोई छोटी मोटी नौकरी करता था। उसकी औकात से बाहर था उस दवाई को खरीदना ,जो उसकी गंभीर बिमारी के लिए बेहद ज़रूरी थी । वह बार-बार हाथ जोड़ कर विनती कर रहा था कि कोई सस्ती दवाई लिख दीजिये डाक्टर साब। लेकिन अपनी जेब से पैसे देकर डाक्टर ने कहा,”भाई, ये ले पैसे और ले आ दवाई । इसके बगैर तेरा काम नहीं होने का।”मरीज का ज़मीर उसे इजाजत नहीं दे रहा था। ख़ैर,हम सब के आग्रह पर वो पैसे लेकर दवाई लेने चला गया और कह गया कि जब उसके पास पैसे होंगे वह पक्का वापस करने आएगा ।इसके ऐवज में हामी भरते हुए डाक्टर साब इंसानियत के पुजारी की तरह मुस्कुरा रहे थे अंत तक ।
इस रूहानी दृश्य के हम दोनों मियां-बीवी मूक दृष्टेता थे । मेरा अंतर्तम उनके समक्ष नतमस्तक हो गया । यह उनका अपना अस्पताल नहीं था। वे वहाँ जौब कर रहे थे । मेरी नजर मे उनका कद आम डाक्टरों से ऊँचा उठ गया था। मुझे उन पर विश्वास हो गया ,कि ये ख़ुदा के बंदे हैं। इनके हाथ मे शफ़ा होगी । मैं ने उसी पल फैसला कर लिया कि मैं अपने घुटने की सर्जरी उन्ही से करवांउगी । हालांकि मैं सारे टैस्ट दिल्ली मे’ सर गंगाराम अस्पताल ‘ मे करवा के तारीख भी ले आई थी । मैंने छूटते ही अपनी ख्वाहिश उन्हें जतला दी ।वे हैरान हो गए सुनकर, क्योंकि वे जानते थे कि हम दिल्ली जा रहे हैं। और वे बोन कैंसर स्पैशलिस्ट थे ना कि घुटने बदलने वाले डाक्टर । पर मैंने तो बस ठान लिया था।
अन्तत: मैंने अपने घुटने की replacement उन्हीं से करवाई ,इस विश्वास के बल -बूते कि मैं एक डाक्टर के साथ-साथ एक सच्चे और सही सर्जन के हाथों मे हूँ। और मेरा विश्वास जीत गया। दस वर्ष बीत चुके हैं घुटना बदलवाए हुये, मेरा घुटना ठीक है।
वीणा विज उदित