लौ का इंतज़ार
बढते आते अँधेरे
गलबय्यां डाल
मेरे अस्तित्व को नकारते
मुझ पर छाते चले गए |
हमराही कहीं था
टटोलने में दिशाभ्रम
उसे भी छिटका गया |
भयावह कालिमा
और यह बाँझ आकाश
समाधिस्थ लगता
सप्तऋषियों का कारवाँ |
अन्तस की लपटों की लौ
बुझकर मृतप्रायः हो
चीत्कार करने को आतुर
खुले होठों में
दंतशिलाबन ठिठक गई |
और………….
भटकन को जो दे सके
इक सही मार्ग-दर्शन–
थरथराता, काँपता बदन
वीरानों में करता
उस टिमटिमाती
लौ का इंतज़ार…………
वीना विज ‘उदित्’